गुजरात में कांग्रेस एक बार पुन: मोदी के जाल में फंस गई. मोदी की डेवलपमेंट एक्सप्रेस विकास की पटरी से हिन्दुत्व की पटरी पर बारास्ता शोराबुद़दीन आ ही गई। मोदी को सोनिया ने मौत का सौदागर कह - कह कर खूब उकसाया जैसे कि लेग ब्रेक स्पिनर बल्लेबाज को अपनी फ़लाइटेट गेंद से क्रीज के बाहर निकालने की कोशिश करता है । मोदी ने इस बार ऐसा सिक्सर मारा कि कांग्रेस की सिटटी पिटटी गुम हो गई. विकास के नारे से साथ मोदी ने फिर से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का जो धोबी पछाड दांव मारा उससे कांग्रेस तमतमाती नजर आ रही है।
ये किस्सा है दूध के जलों का, हम छांछ को
भी फूंक-फूंक कर पिया करते हैं
सोनिया को करारा जवाब
मोदी ने गोधरा की सभा में बड़ी ही चतुराई से सोनिया को राजनीतिक जवाब देते हुए जनता के मुंह से यह कहला ही दिया कि शोहराबुददीन जैसों का तो एनकाउन्टर ही होना चाहिए । मोदी के इस बयान को टाइम्स आफ इंडिया के अमदाबाद संस्करण ने अपने हिसाब से इंटरपिटेट कर छापा फिर क्या था तिस्ता सितलवाड सहित सारे मोदी विरोधी चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट में पंहुच गए । मानो मोदी को इसी घडी का इंतजार हो । मोदी को चुनाव आयोग ने नोटिस भी फटकार दिया । मारे चुनाव आयोग के डर के कि कहीं मौत के सौदागर वाली टिप्पणी सोनिया को भारी नहीं पड जाए कांग्रेस के बडबोले नेता कपिल सिब्बल ने कहा कि सोनिया गांधी ने मौत के सौदागर शब्द़ का इस्तेमाल मोदी के लिए गुजरात के प्रशासन के लिए किया था। नहीं किया था ।
मौत का सौदागर कौन
शोहराबुददीन पर मोदी के बयान से जहां भाजपा को फायदे की बात चल पड वहीं मौत के सौदागर वाले मामले में कपिल सिब्बल के बयान से मुसिलम कुछ नाराज से लगे । इतने में कांग्रेस के दूसरे प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने यह कहकर सिब्बल की बात काट दी कि सोनियाजी ने मौत के सौदागर शब्द का उपयोग नरेन्द्र मोदी के लिए ही किया थात्र अब राम जाने सिब्बल सही हैं या सिंघवी। अब अगर सिंघवी साहब की बात को सही मानें तो सिब्बल साहब गलत हैं और सिब्बल साहब के बयान का दूसरा पक्ष देखें तो उसमें उन्होंने कहा कि मौत के सौदागर शब्द का इस्तेमाल तो गुजरात के प्रशासन के लिए था । प्रशासन बोले तो चीफ सेक्रेटरी और चीफ सेक्रेटरी पदनाम के नीचे लिखा होता है कि फलां- फलां राज्य के राज्यपाल के नाम से आदेशानुसार तो फिर क्या’---------।
अब इनके बारे में यही कहा जा सकता है कि
ये बदल से नहीं जेहन से अपाहिज हैं,
बहीं कहेंगे जो रहनुमा बताएगा
शेषन चिरायु हो
तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने चौदह साल पहले जब चुनाव सुधार का बीड़ा उठाया था तब उन्हें खुद भी उम्मीद नहीं होगी कि अगले एक दशक में चुनाव प्रचार की तस्वीर इतनी बदल जाएगी। गुजरात के चुनाव इसकी एक ताजा बानगी हैं। कच्छ से चोर्यासी तक, पावागढ से अम्बाजी तक और पोरबंदर से भरूच तक किसी भी शहर,गांव और कस्बे में चले जाइए पहले के चुनाव की तुलना में एक सन्नाटा सा पसरा दिखाई देता है। कुछ साल पहले चुनाव में ऐसी मुर्दा शांति की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।
अगर सत्तर से नब्बे के दशक के चुनाव के बारे फिल्मी फ़लेश बेक की तरह सोचें तो- पता चलता है कि उस दौरान किस तरह शहर की हर दीवार चुनावी नारों और हर खंभा बैनर से पट जाता था। भौंगे बोले तो लाउडस्पीकर का कानफोडू शोर और रैलियों की रेलमपेल बाप रे बाप। इन सब के बीच शहर की गलियों से गुज़रते कितना मुश्िकल हुआ करंता था।
जिन ढीठ राजनेताओं पर नकेल डालना किसी के बस में नहीं था उन्हे स्कूली बच्चों के मानिंद आज्ञाकारी बनाने का श्रेय चुनाव आयोग को जाता है। इसलिए सलाम हैं इस परंपरा के वाहक टीएन शेषन को ।
संदेश
संदेश साफ है कि संवैधानिक संस्थाएँ अगर अपने अधिकारों का ठीक-ठीक इस्तेमाल करें तो इस देश में परिस्थितियाँ बदल सकती हैं।
कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो
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