सोमवार, 28 जनवरी 2008
शनिवार, 22 दिसंबर 2007
सोमवार, 17 दिसंबर 2007
मौत का सौदागर कौन
शनिवार, 15 दिसंबर 2007
मोदी इज़ बीजेपी एंड बीजेपी इज़ मोदी
इंदिरा और मोदी में समानताएं
दोनों ही जिद़दी हैं और दोनों की सैली तानाशाह सरीखी है।
दोनों के खिलाफ विपक्षी लामबंद हो गए। तब इंदिरा वर्सेस आल और अभी मोदी वर्सेज आल।
दोनों के खिलाफ अपनी ही पार्टी के लोगों ने बगावत की थी। तब मोराराजी देसाई, चौधरी चरणसिंह और बाबू जगजीवन राम ने पार्टी छोडी थी और अभी सुरेश मेहता, शंकरसिंह वाघेला आदि ने।
दोनों के अल्पसंख्यकों का दमन किया। एक ने करवाया था आपरेशन ब्लू स्टार दूजे ने गोधरा कांड के बाद हुए दंगे को रोकने में राजधर्म का पालन नहीं किया।
दोनों में जनता को अपनी ओर खींचने और उनसे संवाद की अनोखी शैली है।
अंतिम समानता इस लेख के अंत में ।
मोदी वर्सेज आल
गुजरात के राजनीति इतिहास में यह पहला मौका है जब चुनाव में दोनों भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पक्षों के लिए एक ही मुद्दा है और वह है मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी। भाजपा का सारा प्रचार अभियान, केम्पेन और विज्ञापन सभी मोदी के इर्द-गिर्द ही धूम रहे हैं। यानी गुजरात में मोदी आधारित चुनाव लड़ा जा रहा है। क्या गुजरात के साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों को मोदी चाहिए अथवा नहीं चाहिए के मुद़दे पर ही मतदान करना है। इतिहास गवाह है गुजरात के चुनाव में लहर होती है। इस चुनाव में अभी तक तो कोई लहर नहीं है। इस चुनाव में लगता है लहर अंतिम समय पर ही चलेगी। मोदी चाहिए अगर यह मुद़दा चला तो सारे गुजरात में चलेगा और नहीं चला तो सारे गुजरात में नहीं चलेगा। इससे एक बात तो तय लगती है कि जिसे सत्ता मिलेगी पूर्ण बहुमत के साथ मिलेगी। अगर हम शुरआती संकेतों की बात करें तो गुजरात को मोदी चाहिए का मुद़दा चलने की संभावना सबसे ज्यादा लगती है।
असंतुष्टों के कंधे पर कांग्रेस की बंदूक
पिछले एक वर्ष से कांग्रेस मोदी विरोधियों और भाजपा के असंतुष्टों के कंधे पर बंदूक रखकर गुजरात के सिंहासन को साधने में लगी थी। भाजपा के ये लोग सरकार चलाने की मोदी की तानाशाही शैली से नाराज थे। गुटों में बंटी कांग्रेस के लिए यह कम उपलब्धि नहीं है कि तमाम संभावनाओं के विपरीत उसने भाजपा को इस चुनाव में कड़ी चुनौती दी है। अब यह बात अलग है कि इसके लिए उसे भाजपा के असंतुष्टों की बैसाखी का सहारा लेना पड़ा है। अन्यथा एक साल पहले तो यहां तक कहा जा रहा था कि मोदी बड़ी ही आसानी से अगला चुनाव जीत जाएंगे।
टिकिट वितरण को लेकर दोनों ही प्रमुख दलों में अंतिम समय तक घमासान मचा रहा। चुनाव को मोदी वर्सेज आल करने के लिए कांग्रेस ने यूपीए के घटल दलों सहित भाजपा के असंतुष्टों को अपने में मिला लिया। इस कारण टिकिट वितरण में काफी असंतोष ही हुआ और असंतुष्टों को भी ऐन वक्त पर ही टिकिट मिल पाया।
इसके ठीक विपरीत भाजपा के लिए कुछ भी अच्छा नहीं था। भाजपा के कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी, संघ परिवार, विश्व हिन्दू परिषद, किसान संघ का असहयोग, मीडिया और चुनाव आयोग के अंकुश से भाजपा काफी पस्त हो गई थी लेकिन अरूण जेटली ने दिल्ली से इलेक्शन मैनेजर्स की पूरी फौज गुजरात में लगा दी। अरूण जेटली पिछले कई सप्ताह से गुजरात में डेरा डाले हुए हैं ।
विकास का मुद़दा कहीं हेवी सेलिंग जैसा तो नहीं
गुजरात का चुनाव विकास के मुद़दे पर ही लड़ने की बारम्बार घोषणाएं भाजपा के आला नेता पिछले दो महीने से करते आए थे। इसलिए नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनाव अभियान की शुरुआत भी विकास के नारे से की। उन्होंने इसमें विकसित गुजरात, महिलाओं, आदिवासियों के कल्याण सहित अपने समस्त प्रयासों को जनता के सामने रखा भी लेकिन जनता इससे कुछ प्रभावित भी हुई लेकिन कोई खास रिसपोन्स नहीं मिला और मिलना भी नहीं था। कारण कि अभी तक विकास के आधार पर इस देश में तो किसी सरकार ने चुनाव नहीं जीता है। हकीकत तो यह है भाजपा कभी भी विकास को चुनावी मुद़दा बनाना ही नहीं चाहती थी। कारण कि भाजपा को विकास ने नारे का हश्र पता है किस प्रकार पिछले लोकसभा चुनाव में शाइनिंग इंडिया के नारे की हवा निकल गई थी और अटलजी को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था।
विकास से कांग्रेस को भ्रमित कर हिन्दुत्व की गोलाबारी
भाजपा का विकास का नारा कांग्रेस को भ्रमित करने की रणनीति का एक हिस्सा था। कांग्रेस इसके भ्रम में आ गई कि भाजपा इस चुनाव में विकास को मुद़दा बनागी। यह उसकी एक बड़ी रणनीतिक भूल भी है। युदध के मैदान में जब आपके लड़ाकू विमान, टैंक रेजीमेंट या पैराट्रूपर्स मूव करते हैं तो उनकी हलचल और टैंको के चलने की आवाज को छुपाने के लिए तोपखाने से भारी गोलाबारी की जाती है। इससे दुश्मन का ध्यान गोलबारी की ओर ही लगा रहता है, उसे टैंको के आने की खबर तभी मिल पाती है जब वह बिल्कुल ही सामने आ जाता है।
मोदी शुरुआत से हिन्दुत्व को ही चुनावी मुद़दा बनाना चाहते थे पर उसमें खतरा यह था कि कांग्रेस उसका काउन्टर अटैक कर देती। भाजपा ने रणनीति के मुताबिक कांग्रेस को विकास की गोलबारी में इतना उलझा दिया कि उसे लगने लगा कि कहीं विकास के मुद़दे पर मोदी कहीं चुनाव ही जीत लें। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने विकास के मुद़दे को भटकाने के लिए और मीडिया का ध्यान अपनी ओर करने के लिए सोहराबुददीन का मामला छेड़ दिया और मोदी को सोनिया के मुंह से कहलवा दिया मौत का सौदागर। कांग्रेस इस बयान से भी बार- बार अलटती-पलटती रही। भाजपा या कहें कि मोदी चाहते ही यही थे। कांग्रेस ने जैसे ही मुस्लिम वोटों को लुभाने के लिए जैसे ही सोहराबुददीन की एलओसी क्रास की मोदी ने अपने हिन्दुत्व के जंगी जहाज से उड़ान भरी और अपने भाषणों की बम बार्डिंग कांग्रेस पर शुरु कर दी।
गुजराती मुस्लिम तुष्टिकरण से नाराज
गुजरात से साढ़े पांच करोड़ गुजराती मोदी के भाषणों से प्रभावित हुए हैं ऐसा भी नहीं है परन्तु सोनिया की सभाओं के बाद उन्हें ऐसा लगने लगा कि मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए कांग्रेस किसी भी हद तक जा सकती है और इस बारे में लगाए गए भाजपा के आरोप सही हैं। गुजरात का बहुसंख्यक मतदाता यह सह नहीं सकता कि कांग्रेस उसकी उपेक्षा कर मुस्लिमों को खुश करे। चूंकि उसके पास इसके खिलाफ एक ही शस्त्र है और वह है नरेन्द्र मोदी। जब तक कांग्रेस अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए गुजरातियों की उपेक्षा करती रहेगी तब तक नरेन्द्र मोदी का हरा पाना उसके लिए मुश्किल रहेगा।
मोदी ने कांग्रेस के खिलाफ मनोवैज्ञानिक युद़ध भी चला रखा है। मोदी ने यह लगभग सा सिद़ध कर दिया है कि उनके खिलाफ की गई कोई भी टिप्पणी गुजरात और वहां के साढ़े पांच करोड गुजरातियों का अपमान है। इसलिए वे सभाओं में कहते हैं कि यह गुजरात का अपमान है, यह गुजरात को गाली दी गई है।
मोदी ही भाजपा है यह नारा पिछले दो साल से उछल रहा है चुनाव आते ही मोदी ने नया नारा चलाया जीतेगा गुजरात। इसमें नारे में वे अपना प्रतिबिम्ब देखते रहे। भाजपा के नेताओं की आंख में यह नारा खटका भी लेकिन मोदी ने यह कहकर सभी को चुप कर दिया जीत का रास्ता इसी नारे से होकर जाता है। इसके बाद भाजपा आलाकमान के पास भी चुप रहने के अलावा और कोई दूसरा चारा नहीं था।
मोदी विरोधी बातें भी सुन रही है जनता
गुजरात में मोदी की सभाओं में बड़ी भीड़ उमड़ी और मोदी की बातों से लोग काफी प्रभावित भी दिखे। जतना से सीधे बात करते हुए अपनी बातें उनके मुंह से कहलाने का मोदी ने बड़ा अच्छा प्रयोग किया लेकिन इसका कदापि यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि जनता मोदी विरोधी बातें नहीं सुनना ही चाहती। मोदी विरोधी सभाओ में भी काफी भीड़ उमड़ी है।
कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने गुजरात के चुनाव को काफी महत्व देते हुए काफी समय निकाला और कोई एक दर्जन चुनावी रैलियों को संबोधित किया। इनमें लाखों की संख्या में लोगों ने हिस्सा लिया और सोनिया की बातों को बड़े ही गौर से सुना। इसी तरह सरदार पटेल उत्कर्ष समिति के बैनर तले भाजपा के बागी गोवर्धन झड़पिया और कांग्रेस कार्यकर्ताओं की सौराष्ट्र के विभिन्न जिलों में हुईं सभाएं भी प्रभावी रहीं। इसी के कारण भाजपा को सौराष्ट्र में कुछ सीटें गंवानी पड़ सकती हैं। अगर दूसरे चरण में भी कुछ ऐसा ही चला तो कहा जा सकता है जनता को मोदी नहीं परिवर्तन चाहिए।
मोदी का चुनावी जुआं
मोदी ने लिए इस बार एक चुनावी जुआं भी खेला है। पार्टी, संघ,विहिप कोई भी उनके साथ नहीं हैं सिर्फ और सिर्फ मोदी चुनाव लड़ रहे हैं। शहरी इलाकों में मोदी के पक्ष में माहौल दिखता है। अगर यही स्थिति गावों खासकर मध्य गुजरात के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में रही तो मोदी ही चाहिए का मुद़दा काफी प्रभावी हो जाएगा। और भाजपा को पूरे बहुमत के साथ सत्ता मिलेगी। आंखों में सत्ता सुंदरी का सपना संजोए मोदी विरोधी नेता शंकरसिंह वाघेला, भरतसिंह सोलंकी,गोवर्धन झड़पिया मानते हैं कि मोदी के विकास के मुद़दे का हश्र चंद्राबाबू नायडू और शाइनिंग इंडिया के नारे की तरह ही होगा।
मोदी का मैजिक चलेगा क्या
अब तो 23 दिसंबर को ही पता चलेगा कि गुजरात को मोदी चाहिए या नही। मोदी का मैजिक अथवा मास हिस्टेरिया चलेगा या नहीं। इल सभी के बीच एक बात तय है कि गुजरात के इतिहास में पहली बार हो रहे मुद़दा या लहर विहीन चुनाव में एक व्यक्ति ने अपने मैजिक से सरगरर्मी ला दी। अब नतीजा चाहे जो भी हो। जीते तो गुजरात का ताज, बाद में भाजपा का भी। साथ में इंदिरा गांधी जैसे एक और करिश्माई नेता का तमगा वो भी बिल्कुल मुफ़त। इस सारे सवालों के बीच दांव पर लगा है भाजपा का भविष्य। अगर ये चुनाव जीते तो अगले साल होने वाले लोकसभा ओर दस राज्यों के विधानसभा चुनाव का रास्ता काफी आसान हो जाएगा अन्यथा मोदी और भाजपा दोनों का पतन तय है ।
खबरी ने बात इंदिरा गांधी ने शुरु की थी तो समाप्त भी इंदिरा गांधी से।
इंदिरा और मोदी में अंतिम समानता ।
इंदिरा गांधी ने सेवादल सहित कांग्रेस के सभी संगठनों को खत्म कर दिया । इसके बाद अपने नाम से ही नई कांग्रेस खड़ी कर ली । मोदी भी इसी रास्ते पर चल चुके हैं वे संघ और विहिप को खत्म करने की ओर अग्रसर हैं । इसी वजह से भी संघ और विहिप इस चुनाव में उनके साथ नहीं दिख रहे हैं ।
सवाल -इंदिरा गांधी रूल बुक के हिसाब से मोदी का अगला कदम क्या होगा
जवाब- भाजपा मोदी का गठन------
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मंगलवार, 11 दिसंबर 2007
वाजपेयी युग के ऐसे अंत की तो नहीं ही थी उम्मीद
* पहला यह कि लोकसभा के मध्यावधि चुनाव कभी भी हो सकते हैं।
* दूसरा.भाजपा और एनडीए की कमान लालजी के हाल होगी।
* तीसरा गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान की पूर्व संध्या पर ऐसी घोषणा कर यह संदेश देने की कोशिश करना कि अगला प्रधानमंत्री गुजरात से होगा। लालजी गांधीनगर से सांसद भी हैं।
* चौथी और सबसे महत्वपूर्ण यह कि भारत की राजनीति से वाजपेयी युग का औपचापिरक अंत हो गया है ।
* पांचवी यह कि भाजपा की कमान अब नरमपंथी हाथों से चरमपंथी हाथों में आ गई है। यह बाद दीगर है प्रधानमंत्री पद के सपने ने इन हाथों को अपने चेहरे पर जिन्हावाद का मुखौटा लगाने पर मजबूर कर दिया।
भरी दुपहरी में अंधियारा, सूरज अपनों से ही हारा
वाजपेयी जैसे महामना का भारतीय राजनीति के शिखर ऐसी गुमनामी से ओझिल होने की खबर की किसी को उम्मीद नहीं थी, खुद वाजपेयी को भी नहीं। ये वे ही वाजपेयी हैं जिन्होंने गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के बाद नरेन्द्र मोदी को सीख दी थी कि मोदीजी आपने राजधर्म का पालन नहीं किया। वे भारतीय राजनीति में नेहरू युग के अंतिम राजनेता हैं। उन्होंने संघ के प्रचारक, पत्रकार और राजनेता के रूप में सफलताओं और अदाओं के नए मुहावरे गढे। शब्दों के बाणों से सारे काम्पीटिटर्स को ससम्मान धराशायी किया। हटाने के पीछे वाजपेयीजी की ढलती उम्र, खराब सेहत और खुद उनकी रजामंदी की दुहाई दी गई। भाजपा में इतना बडा फैसला हो गया तो बडे घर यानी नागपुर की भी रजामंदी रही ही होगी। यह फैसला काफी पहले ले लिया गया था। भाजपा के संसदीय बोर्ड ने संघ के इशारे पर गुजरात चुनाव से ठीक पहले इसका ऐलान कर दिया। बेहतर होगा कि इस बात का आफिशियल ऐलान करने का मौका वाजपेयी को ही दिया जाता। आरएसएस की परंपरा तो कमसे कम ऐसा ही कहती है। आरएसएस को माई बाप मानने वालों से कम से कम इस भाईचारे की तो उम्मीद थी ही।
भाजपा फिर लौट रही है हिन्दुत्व की ओर
इसका मतलब यह है भी है कि भाजपा हिन्दुत्व की ओर लौट रही है। भाजपा की कमान अब नरमपंथी हाथों से चरमपंथी हाथों में आ गई है। यह बाद दीगर है प्रधानमंत्री पद के सपने ने इन हाथों को अपने चेहरे पर जिन्हावाद का मुखौटा लगाने पर मजबूर कर दिया था। यह तो एनडीए में स्वीकार्यता के लिए खेले गए प्रहसन का एक अध्याय भी था। पिछले लोकसभा चुनाव में शायनिंग इंडिया का नारा देने के बाद पराजय की धूल चाट चुकी भाजपा को अब फिर हिन्दुत्व और विकास के घालमेल से ही उम्मीदें हैं। भाजपा को लगने लगा है कि न खाली हिन्दुत्व से चुनाव जीता जा सकता हैं और न हीं सिर्फ विकास से। उन्हें लगा क्यों न दोनों का घालमेल कर दिया जाए। फिलहाल इसका लिटमस टेस्ट गुजरात विधानसभा चुनाव में जारी है। यही कारण है कि चरमवादी लालजी, नरमपंथी अटलबिहारी वाजपेयी के उत्तराधिकारी होंगे। आरएसएस को भी वाजपेयी कभी भी सूट नहीं करते थे, लेकिन सर्वस्वीकार्यता और गठबंधने के दौर में उसे अपने इस नरमपंथी स्वयंसेवक को मजबूरी में देश का सीईओ बनाना पड़ा था। भाजपा विकास के नारे के साथ हिन्दुत्व की ओर लौट रही है इसका सबसे बड़ा उदाहरण है नरेन्द्र मोदी। गुजरात में विकास ने नाम पर प्रचार अभियान चला रहे मोदी ने बीच प्रचार के दौरान पूर्व नियोजित तरीके से यू-टर्न लिया और सोहराबुद़दीन के बहाने भाजपा को वापस हिन्दुत्व की पटरी पर ला खडा किया। बिना संघ की हरी झंडी के मोदी इतना बड़ा कदम उठा ही नहीं सकते थे।
एक तीर से साधे कई निशाने
आडवाणी तो एक बहाना हैं। इसके बहाने कई तीर चले हैं। संघ कई दिनों से भाजपा को हिन्दुत्व की पटरी पर लाना चाह रहा था पर वाजपेयी के रहते भाजपा में यह सब संभव नहीं हो पा रहा था। अब तय है कि भाजपा का रिमोट कंन्टोल नागपुर केसरिया झंडे तले पहुंच गया है।
गुजरात में भाजपा में चल रही असंतुष्ट गतिविधियों के पीछे आडवाणी विरोधियों की शह को माना जा रहा है। भाजपा पर अपना बर्चस्व कामम करने के लिए मौजूदा हाईकमान राजनाथसिंह आडवाणी को कमजोर करने पर लगे हुए हैं। पिछले दिनों वे यह भी कह चुके हैं कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों की दौड़ मे वे भी शामिल हैं।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी आडवाणी की परछाई की तरह हैं। अगर मोदी कमजोर होते हैं या गुजरात में मोदी हारते हैं तो इससे आडवाणी कमजोर होंगे और यही पार्टी आलाकमान चाहते हैं। इसी चाल को भांपते हुए आडवाणी और मोदी पिछले कई दिनों से संघ पर दबाव बनाए हुए थे कि आडवाणीजी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए। पहले दौर में तो आडवाणी और मोदी ने बाजी मार ली है। अब सारा गणित गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों पर निर्भर है। अगर मोदी जीतते है तो अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव और दस राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा का तुरुफ का इक्का हिन्दुत्व और विकास का घालमेल ही होगा।
रविवार, 9 दिसंबर 2007
प्रवीण तोगडिया फ्राम पाटीदार परिषद
नाम-प्रवीण तोगिडया
पद- अध्यक्ष गुजरात पाटीदार परिषद
जी हां वे तोगडियाजी तो वही हैं विहिप वाले पर उनके पाटीदार समाज के प्रेम ने उन्हें आज इस मुकाम पर ला खडा किया है ।
हिन्दुत्व के हीरो और विश्व हिन्दू परिषद के तेजाबी जुबान वाले नेता बोले तो अपने प्रवीणभाई तोगडिया इस बार गुजरात विधानसभा चुनाव के कैनवास से गायब हैं। गोधरा कांड और दगों के बाद हुए पिछले चुनाव में प्रवीण भाई तोगडिया ने मोदी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनके समर्थन में सौ से अधिक सभाएं की थीं। प्रस्तुत है प्रवीणभाई के गावब होने की कथा
ये कैसा हिन्दुत्व
प्रवीणभाई तोगडिया मोदी विरोधी गतिविधियों से लगातार जुडे रहे। कारण कि मोदी के खिलाफ चल रहे असंतुष्टों के आंदोलन को प्रवीणभाई को खुले दिल से खुले तौर पर आशीर्वाद रहा है। इसका एक बडा कारण उनका पाटीटार होना भी रहा है बुजुर्गवार भाजपी नेता केशुभाई भी इसी पाटीदार समाज को बिलांग करते हैं। सरदार पटेल उत्क़र्ष समिति के बैनर तले सौराष्ट में हुए असंतुष्टों के सम्मेलनों को भी हमारे इस हिन्दूवीर ने संबोधित किया था।
प्रवीणभाई को हिन्दुत्व का डोज
असंतुष्टों के अगुवा प्रवीणभाई की इस हरकत के बारे में जब आरएसएस मुख्यालय और भाजपाई कंमाडर को खबर लगी तो उन्हें मुम्बई तलब किया गया। वहां उन्हें संघ के नेता मोहन भागवत, जिन्हावादी नेता आडवाणी और बीजेपी सुप्रीमो राजनाथसिंह ने हिन्दुत्व का कोरामिन डोज दिया गया। उन्हें याद दिलाया गया कि वे मात्र पाटीदार समाज ही नहीं समग्र हिन्दू समाज के नेता हैं लिहाजा पाटीदार समाज विशेष के मच पर जाकर एक प्रो हिन्दू सरकार के मुखिया को हटाने की गतिविधियों में शामिल होना उनके कद के नेता को शोभा नहीं देता है।
पाटीदार समाज के नेता हैं या हिन्दु परिषद के
अभी तक प्रवीणभाई हिन्दुत्व का कोरामिन डोज विहिप कार्यकर्ताओं को लगाया करते थे उसी का प्रयोग मुम्बई में उन्हीं पर हो गया। पेशे से कैंसर के डाक्टर प्रवीणभाई के पास हथियार डालने के अलावा और कोई दूसरा चारा नहीं बचा था। उन्होंने नेताओं की तिकडी को वचन दिया कि वे चुनाव तक गुजरात का मुंह भी नहीं करेंगे और वे रामसेतु के लिए जागित अभियान में लग जाएंगे।
गुजरात से दूर रहने की सौदेबाजी
खैर इसके बाद प्रवीणभाई सीधे तौर पर मोदी विरोधी अभियान से दूर हो गए पर परदे के पीछे कठपुतलियों का नाच जारी है। प्रवीणभाई को इसका सिला भी तुरंत ही मिल गया। राजस्थान की भाजपी सरकार ने उनके खिलाफ अजमेर में दर्ज त्रिशूल दीक्षा का मामला वापस ले लिया। जैसा कि सभी जानते हैं लगभग पांच साल पहले अजमेर में त्रिशूल दीक्षा के कार्यक्रम कांग्रेस की तत्कालीन अशोक गहलोत सरकार ने उनके खिलाफ मामला दर्ज कर लिया था। उसके बाद से समुद्र का काफी पानी बह गया। इस दौरान वहां भाजपा की सरकार भी बन गई पर मामला था कि वापस लेने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब बोलियो यह कैसी सौदेबाजी रही।
महत्वाकांक्षा के बीज
संघ परिवार और भाजपा के शीर्ष नेताओं में एक बार इस बात पर विचार किया था कि क्या गुजरात का नेतृत्व प्रवीण तोगड़िया को सौंप देना चाहिए ? यह प्रस्ताव तोगड़िया तक भी गया था. लेकिन उनका कहना था कि वे तो विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय महासचिव हैं और एक छोटे से राज्य का नेतृत्व उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं है बाद में उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्हें लगा कि ये तो उन्होंने हाथ में आई थाली छोड दी है।
राजनीति का विहिप
गुजरात चुनाव में मोदी और हिन्दुत्ववादी ताकतों को मजबूत करने के प्रस्ताव के तोगिडया की विहिप दूर क्यों हैं? लाख टके का सवाल सारे हिन्दुओं के मन में घूम रहा है। पाटीदार समाज की खातिर प्रवीणभाई ने क्यों विश्व हिन्दू परिषद की विचारधारा को भी ताक पर रख दिया है? विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंहल ने मोदी को समर्थन क्या दिया प्रवीण भाई समर्थक संत नाराज हो गए। सवाल यह है कि हिन्दूओं के हित ज्यादा महत्वपूर्ण हैं या प्रवीणभाई या नरेन्द्रभाई या केशुभाई का ईगो? क्या हिन्दूओं के व्यापक हितों के लिए इस यादवी घमासान को कुछ देर के लिए रोका नहीं जा सकता? यह बात मैं सिर्फ और सिर्फ इसलिए कर रहा हूं इन सारे महानुभावों की दुकानदारी हिन्दुत्व के नाम पर चलती है। दरअसल प्रवीणभाई की नजर बडे ही दिनों से सिंधल साहब की कुरसी पर है इस बहाने प्रवीणभाई को मौका मिल गया । पर अशोक सिंघल ने गुजरात में विहिप मार्गदर्शक मंडल के सदस्य और पंचखंडपीठाधीश्वर आचार्य धर्मेन्द्र को मैदान में उतरकर उनकी कुरसी के पीछे एक दावेदार लगा दिया है। आचार्य धर्मेन्द्र प्रवीणभाई से भी तेजाबी जुबान रखते हैं।
गौर करे
माना कि इन चुनावों मोदी हार गए और फिर दंगा हो गया------
सवाल- इसका जिम्मेदार कौन
जवाब- प्रवीण तोगडिया
बहुत कर ली सियासल अपनी-अपनी
अब जरा सुध ले लो हिन्दुओं की
मौत का सौदागर - कांग्रेस हुई पस्त, मोदी
गुजरात में कांग्रेस एक बार पुन: मोदी के जाल में फंस गई. मोदी की डेवलपमेंट एक्सप्रेस विकास की पटरी से हिन्दुत्व की पटरी पर बारास्ता शोराबुद़दीन आ ही गई। मोदी को सोनिया ने मौत का सौदागर कह - कह कर खूब उकसाया जैसे कि लेग ब्रेक स्पिनर बल्लेबाज को अपनी फ़लाइटेट गेंद से क्रीज के बाहर निकालने की कोशिश करता है । मोदी ने इस बार ऐसा सिक्सर मारा कि कांग्रेस की सिटटी पिटटी गुम हो गई. विकास के नारे से साथ मोदी ने फिर से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का जो धोबी पछाड दांव मारा उससे कांग्रेस तमतमाती नजर आ रही है।
ये किस्सा है दूध के जलों का, हम छांछ को
भी फूंक-फूंक कर पिया करते हैं
सोनिया को करारा जवाब
मोदी ने गोधरा की सभा में बड़ी ही चतुराई से सोनिया को राजनीतिक जवाब देते हुए जनता के मुंह से यह कहला ही दिया कि शोहराबुददीन जैसों का तो एनकाउन्टर ही होना चाहिए । मोदी के इस बयान को टाइम्स आफ इंडिया के अमदाबाद संस्करण ने अपने हिसाब से इंटरपिटेट कर छापा फिर क्या था तिस्ता सितलवाड सहित सारे मोदी विरोधी चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट में पंहुच गए । मानो मोदी को इसी घडी का इंतजार हो । मोदी को चुनाव आयोग ने नोटिस भी फटकार दिया । मारे चुनाव आयोग के डर के कि कहीं मौत के सौदागर वाली टिप्पणी सोनिया को भारी नहीं पड जाए कांग्रेस के बडबोले नेता कपिल सिब्बल ने कहा कि सोनिया गांधी ने मौत के सौदागर शब्द़ का इस्तेमाल मोदी के लिए गुजरात के प्रशासन के लिए किया था। नहीं किया था ।
मौत का सौदागर कौन
शोहराबुददीन पर मोदी के बयान से जहां भाजपा को फायदे की बात चल पड वहीं मौत के सौदागर वाले मामले में कपिल सिब्बल के बयान से मुसिलम कुछ नाराज से लगे । इतने में कांग्रेस के दूसरे प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने यह कहकर सिब्बल की बात काट दी कि सोनियाजी ने मौत के सौदागर शब्द का उपयोग नरेन्द्र मोदी के लिए ही किया थात्र अब राम जाने सिब्बल सही हैं या सिंघवी। अब अगर सिंघवी साहब की बात को सही मानें तो सिब्बल साहब गलत हैं और सिब्बल साहब के बयान का दूसरा पक्ष देखें तो उसमें उन्होंने कहा कि मौत के सौदागर शब्द का इस्तेमाल तो गुजरात के प्रशासन के लिए था । प्रशासन बोले तो चीफ सेक्रेटरी और चीफ सेक्रेटरी पदनाम के नीचे लिखा होता है कि फलां- फलां राज्य के राज्यपाल के नाम से आदेशानुसार तो फिर क्या’---------।
अब इनके बारे में यही कहा जा सकता है कि
ये बदल से नहीं जेहन से अपाहिज हैं,
बहीं कहेंगे जो रहनुमा बताएगा
शेषन चिरायु हो
तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने चौदह साल पहले जब चुनाव सुधार का बीड़ा उठाया था तब उन्हें खुद भी उम्मीद नहीं होगी कि अगले एक दशक में चुनाव प्रचार की तस्वीर इतनी बदल जाएगी। गुजरात के चुनाव इसकी एक ताजा बानगी हैं। कच्छ से चोर्यासी तक, पावागढ से अम्बाजी तक और पोरबंदर से भरूच तक किसी भी शहर,गांव और कस्बे में चले जाइए पहले के चुनाव की तुलना में एक सन्नाटा सा पसरा दिखाई देता है। कुछ साल पहले चुनाव में ऐसी मुर्दा शांति की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।
अगर सत्तर से नब्बे के दशक के चुनाव के बारे फिल्मी फ़लेश बेक की तरह सोचें तो- पता चलता है कि उस दौरान किस तरह शहर की हर दीवार चुनावी नारों और हर खंभा बैनर से पट जाता था। भौंगे बोले तो लाउडस्पीकर का कानफोडू शोर और रैलियों की रेलमपेल बाप रे बाप। इन सब के बीच शहर की गलियों से गुज़रते कितना मुश्िकल हुआ करंता था।
जिन ढीठ राजनेताओं पर नकेल डालना किसी के बस में नहीं था उन्हे स्कूली बच्चों के मानिंद आज्ञाकारी बनाने का श्रेय चुनाव आयोग को जाता है। इसलिए सलाम हैं इस परंपरा के वाहक टीएन शेषन को ।
संदेश
संदेश साफ है कि संवैधानिक संस्थाएँ अगर अपने अधिकारों का ठीक-ठीक इस्तेमाल करें तो इस देश में परिस्थितियाँ बदल सकती हैं।
कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो