सोमवार, 17 दिसंबर 2007

मौत का सौदागर कौन


क्या शब्द भारत की राजनीति में चल पड़ा है - मौत का सौदागर !अब यह शोध का विषय हो सकता है कि भारत में कौन कौन लोग हो सकते हैं मौत का सौदागर। राष्ट्रमाता ने इस शब्द की खोज की है। ऐसा शब्द के जानकार मानते हैं। खोज इस पर भी हो रही है कि यह शब्द राष्ट्रमाता का है या जो भी राष्ट्रमाता का भाषण लिखता है उसकी खोज है। खोजबीन के दूरबीनी चीरफाड़ियों का मानना है कि खोज के साथ अकसर यही होता है। करता कोई है , नाम किसी और का होता है। लेकिन एक शेक्सपीयराना विद्वान का मानना है कि मौत का सौदागर मर्चेंट आफ वेनिस का भारतीयकरण है। बहरहाल ,इतना सच है कि भारत में मौत भी होती है और सौदागर भी होते हैं। मौत का कारोबार करने वाले को मौत का सौदागर कहा जाता है। अब हाल यह है कि पहले तो राष्ट्रमाता ने नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कहा। इस पर चुनाव आयोग को बड़ी तकलीफ हुई कि चुनाव के समय किसी को मौत का सौदागर कैसे कहा जा सकता है। ठोंक दी एक नोटिस चुनाव आयोग ने राष्ट्रमाता को। इस पर राष्ट्रमाता पलट गईं। कहा मोदी को नहीं फेक एंकाउंटर करने वालों को उन्होने मौत का सौदागर कहा। वह राजनेता नहीं पुलिस वाले हैं। इससे नतीजा यह निकलता है कि कोई राजनेता मौत का सौदागर नहीं हो सकता है।लेकिन प्रमाणित राजनेता नरेंद्र मोदी का मानना है कि मौत के सौदागर पुलिस वाले नहीं हो सकते। मौत के सौदागर आतंकवादी होते हैं। आतंकवादियों को मारना राजधर्म ही नहीं राष्ट्रधर्म भी है। अपने इस धर्म का पालन करने के लिए वह राष्ट्रमाता को चुनौती भी देते हैं कि चाहें तो उन्हें गोली मार दें। यहां वह राष्ट्रमाता को मौत का सौदागर कहना चाहते हैं। कितना डर समाया है राजनेताओं के मन में चुनाव आयोग का। डर के मारे अपनी बात से वैसे ही पलटते हैं , जैसे सत्ता में आने के बाद अपने वादे से पलटते हैं। ऐसी हालत में यह जरूरी हो जाता है कि देश में एक आयोग या जांच कमिटी बने। जाहिर है किसी रिटायर जज की अध्यक्षता में ही बनेगी। भारत सरकार को कष्ट हो तो भारत की समानांतर सरकार रेल मंत्रालय बी अपना जांच आयोग बना सकता है। जैसे गोधरा पर रेल मंत्रालय ने कमिटी बनाई ,वैसे ही मौत का सौदागर पर भी बना सकती है। इसके पास कमिटी बनाने का वाजिब कारण भी है। अकसर रेल गाड़ी भी मौत का सौदागर हो जाती है। यह कमिटी जल्द से जल्द यानी सौ साल के अंदर अपनी रिपोर्ट दे कि मौत का सौदागर कौन हो सकता है। कमिटी को यह भी ध्यान रखना होगा कि धर्म , जाति , अगड़ी ,पिछड़ी ,दलित आदि के नजरिए से भी मौत का सौदागर का वर्गीकरण करे।देश के लिए जरूरी है जानना कि कौन है मौत का सौदागर !

जुगनू

शनिवार, 15 दिसंबर 2007

मोदी इज़ बीजेपी एंड बीजेपी इज़ मोदी


गुजरात विधानसभानाव के लिए दूसरे चरण के मतदान को अब 24 घंटे से भी कम का समय बचा है। खबरी सोचता है कि इस बार के गुजरात विधानसभा चुनाव सत्‍तर और अस्‍सी के दशक के लोकसभा चुनाव से काफी मिलते जुलते हैं। तब तानाशाह इंदिरा गांधी का वन मैन शो चलता था और इमरजेंसी के बाद तो इंदिरा वर्सेज आल का नारा बुलंद हुआ था। उस दौर में कांग्रेसी दलील दिया करते थे इंदिरा इज़ कांग्रेस एंड कांग्रेस इज़ इंदिरा। लगता है आज इतिहास खुद को दोहरा रहा है गुजरात में नरेन्‍द्र मोदी के रूप में। गुजरात में मोदी इज़ बीजेपी एंड बीजेपी इज़ मोदी का फार्मला चल रहा है। वही शैली, वही अदा, वही जनता से सीधा संवाद, वही तल्‍खी, वही भीड़ से अलग दिखने की अदा। कहीं नरेन्‍द्र मोदी इंदिरा गांधी को कापी तो नहीं कर रहे हैं। खबरी का उत्‍तर है- हां। अगर मोदी चुनाव जीत गए तो मोदी इज़ बीजेपी एंड बीजेपी इज़ मोदी का फार्मला सुपर हिट हो जाएगा ।

इं‍दिरा और मोदी में समानताएं

दोनों ही जिद़दी हैं और दोनों की सैली तानाशाह सरीखी है।
दोनों के खिलाफ विपक्षी लामबंद हो गए। तब इंदिरा वर्सेस आल और अभी मोदी वर्सेज आल।
दोनों के खिलाफ अपनी ही पार्टी के लोगों ने बगावत की थी। तब मोराराजी देसाई, चौधरी चरण‍सिंह और बाबू जगजीवन राम ने पार्टी छोडी थी और अभी सुरेश मेहता, शंकरसिंह वाघेला आदि ने।
दोनों के अल्‍पसंख्‍यकों का दमन किया। एक ने करवाया था आपरेशन ब्‍लू स्‍टार दूजे ने गोधरा कांड के बाद हुए दंगे को रोकने में राजधर्म का पालन नहीं किया।
दोनों में जनता को अपनी ओर खींचने और उनसे संवाद की अनोखी शैली है।
अंतिम समानता इस लेख के अंत में ।

मोदी वर्सेज आल


गुजरात के राजनीति इतिहास में यह पहला मौका है जब चुनाव में दोनों भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पक्षों के लिए एक ही मुद्दा है और वह है मुख्‍यमंत्री नरेन्‍द्र मोदी। भाजपा का सारा प्रचार अभियान, केम्‍पेन और विज्ञापन सभी मोदी के इर्द-‍गिर्द ही धूम रहे हैं। यानी गुजरात में मोदी आधारित चुनाव लड़ा जा रहा है। क्‍या गुजरात के साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों को मोदी चाहिए अथवा नहीं चाहिए के मुद़दे पर ही मतदान करना है। इतिहास गवाह है गुजरात के चुनाव में लहर होती है। इस चुनाव में अभी तक तो कोई लहर नहीं है। इस चुनाव में लगता है लहर अंतिम समय पर ही चलेगी। मोदी चा‍हिए अगर यह मुद़दा चला तो सारे गुजरात में चलेगा और नहीं चला तो सारे गुजरात में नहीं चलेगा। इससे एक बात तो तय लगती है कि जिसे सत्‍ता मिलेगी पूर्ण बहुमत के साथ मिलेगी। अगर हम शुरआती संकेतों की बात करें तो गुजरात को मोदी चाहिए का मुद़दा चलने की संभावना सबसे ज्‍यादा लगती है।

असंतुष्‍टों के कंधे पर कांग्रेस की बंदूक

पिछले एक वर्ष से कांग्रेस मोदी विरोधियों और भाजपा के असंतुष्‍टों के कंधे पर बंदूक रखकर गुजरात के सिंहासन को साधने में लगी थी। भाजपा के ये लोग सरकार चलाने की मोदी की तानाशाही शैली से नाराज थे। गुटों में बंटी कांग्रेस के लिए यह कम उपलब्धि नहीं है कि तमाम संभावनाओं के विपरीत उसने भाजपा को इस चुनाव में कड़ी चुनौती दी है। अब यह बात अलग है कि इसके लिए उसे भाजपा के असंतुष्‍टों की बैसाखी का सहारा लेना पड़ा है। अन्‍यथा एक साल पहले तो यहां तक कहा जा रहा था कि मोदी बड़ी ही आसानी से अगला चुनाव जीत जाएंगे।
टिकिट वितरण को लेकर दोनों ही प्रमुख दलों में अंतिम समय तक घमासान मचा रहा। चुनाव को मोदी वर्सेज आल करने के लिए कांग्रेस ने यूपीए के घटल दलों सहित भाजपा के असंतुष्‍टों को अपने में मिला लिया। इस कारण टिकिट वितरण में काफी असंतोष ही हुआ और असंतुष्‍टों को भी ऐन वक्‍त पर ही टिकिट मिल पाया।
इसके ठीक विपरीत भाजपा के लिए कुछ भी अच्‍छा नहीं था। भाजपा के कार्यकर्ताओं और व‍रिष्‍ठ नेताओं की नाराजगी, संघ परिवार, विश्‍व हिन्‍दू परिषद, किसान संघ का असहयोग, मीडिया और चुनाव आयोग के अंकुश से भाजपा काफी पस्‍त हो गई थी लेकिन अरूण जेटली ने दिल्‍ली से इलेक्‍शन मैनेजर्स की पूरी फौज गुजरात में लगा दी। अरूण जेटली पिछले कई सप्‍ताह से गुजरात में डेरा डाले हुए हैं ।

विकास का मुद़दा कहीं हेवी सेलिंग जैसा तो नहीं

गुजरात का चुनाव विकास के मुद़दे पर ही लड़ने की बारम्‍बार घोषणाएं भाजपा के आला नेता पिछले दो महीने से करते आए थे। इसलिए नरेन्‍द्र मोदी ने अपने चुनाव अभियान की शुरुआत भी विकास के नारे से की। उन्‍होंने इसमें विकसित गुजरात, म‍हिलाओं, आदिवासियों के कल्‍याण सहित अपने समस्‍त प्रयासों को जनता के सामने रखा भी लेकिन जनता इससे कुछ प्रभावित भी हुई लेकिन कोई खास रिसपोन्‍स नहीं मिला और मिलना भी नहीं था। कारण कि अभी तक विकास के आधार पर इस देश में तो किसी सरकार ने चुनाव नहीं जीता है। हकीकत तो यह है भाजपा कभी भी विकास को चुनावी मुद़दा बनाना ही नहीं चाहती थी। कारण कि भाजपा को विकास ने नारे का हश्र पता है किस प्रकार पिछले लोकसभा चुनाव में शाइनिंग इंडिया के नारे की हवा निकल गई थी और अटलजी को सत्‍ता से हाथ धोना पड़ा था।

विकास से कांग्रेस को भ्रमित कर हिन्‍दुत्‍व की गोलाबारी

भाजपा का विकास का नारा कांग्रेस को भ्रमित करने की रणनीति का एक हिस्‍सा था। कांग्रेस इसके भ्रम में आ गई कि भाजपा इस चुनाव में विकास को मुद़दा बनागी। यह उसकी एक बड़ी रणनीतिक भूल भी है। युदध के मैदान में जब आपके लड़ाकू विमान, टैंक रेजीमेंट या पैराट्रूपर्स मूव करते हैं तो उनकी हलचल और टैंको के चलने की आवाज को छुपाने के लिए तोपखाने से भारी गोलाबारी की जाती है। इससे दुश्‍मन का ध्‍यान गोलबारी की ओर ही लगा रहता है, उसे टैंको के आने की खबर तभी मिल पाती है जब वह बिल्‍कुल ही सामने आ जाता है।
मोदी शुरुआत से हिन्‍दुत्‍व को ही चुनावी मुद़दा बनाना चाहते थे पर उसमें खतरा यह था कि कांग्रेस उसका काउन्‍टर अटैक कर देती। भाजपा ने रणनीति के मुताबिक कांग्रेस को विकास की गोलबारी में इतना उलझा दिया कि उसे लगने लगा कि कहीं विकास के मुद़दे पर मोदी कहीं चुनाव ही जीत लें। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने विकास के मुद़दे को भटकाने के लिए और मीडिया का ध्‍यान अपनी ओर करने के लिए सोहराबुददीन का मामला छेड़ दिया और मोदी को सोनिया के मुंह से कहलवा दिया मौत का सौदागर। कांग्रेस इस बयान से भी बार- बार अलटती-पलटती रही। भाजपा या कहें कि मोदी चाहते ही यही थे। कांग्रेस ने जैसे ही मुस्लिम वोटों को लुभाने के लिए जैसे ही सोहराबुददीन की एलओसी क्रास की मोदी ने अपने हिन्‍दुत्‍व के जंगी जहाज से उड़ान भरी और अपने भाषणों की बम बार्डिंग कांग्रेस पर शुरु कर दी।

गुजराती मुस्लिम तुष्टिकरण से नाराज


गुजरात से साढ़े पांच करोड़ गुजराती मोदी के भाषणों से प्रभावित हुए हैं ऐसा भी नहीं है परन्‍तु सोनिया की सभाओं के बाद उन्‍हें ऐसा लगने लगा कि मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए कांग्रेस किसी भी हद तक जा सकती है और इस बारे में लगाए गए भाजपा के आरोप सही हैं। गुजरात का बहुसंख्‍यक मतदाता यह सह नहीं सकता कि कांग्रेस उसकी उपेक्षा कर मुस्लिमों को खुश करे। चूंकि उसके पास इसके खिलाफ एक ही शस्‍त्र है और वह है नरेन्‍द्र मोदी। जब तक कांग्रेस अल्‍पसंख्‍यकों को लुभाने के लिए गुजरा‍तियों की उपेक्षा करती रहेगी तब तक नरेन्‍द्र मोदी का हरा पाना उसके लिए मुश्किल रहेगा।

मोदी ने कांग्रेस के खिलाफ मनोवैज्ञानिक युद़ध भी चला रखा है। मोदी ने यह लगभग सा सिद़ध कर दिया है कि उनके खिलाफ की गई कोई भी टिप्‍पणी गुजरात और वहां के साढ़े पांच करोड गुजरातियों का अपमान है। इसलिए वे सभाओं में कहते हैं कि यह गुजरात का अपमान है, यह गुजरात को गाली दी गई है।
मोदी ही भाजपा है यह नारा पिछले दो साल से उछल रहा है चुनाव आते ही मोदी ने नया नारा चलाया जीतेगा गुजरात। इसमें नारे में वे अपना प्रतिबिम्‍ब देखते रहे। भाजपा के नेताओं की आंख में यह नारा खटका भी लेकिन मोदी ने यह कहकर सभी को चुप कर दिया जीत का रास्‍ता इसी नारे से होकर जाता है। इसके बाद भाजपा आलाकमान के पास भी चुप रहने के अलावा और कोई दूसरा चारा नहीं था।

मोदी विरोधी बातें भी सुन रही है जनता

गुजरात में मोदी की सभाओं में बड़ी भीड़ उमड़ी और मोदी की बातों से लोग काफी प्रभावित भी दिखे। जतना से सीधे बात करते हुए अपनी बातें उनके मुंह से कहलाने का मोदी ने बड़ा अच्‍छा प्रयोग किया लेकिन इसका कदापि यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि जनता मोदी विरोधी बातें नहीं सुनना ही चाहती। मोदी विरोधी सभाओ में भी काफी भीड़ उमड़ी है।
कांग्रेस अध्‍यक्षा सोनिया गांधी ने गुजरात के चुनाव को काफी महत्‍व देते हुए काफी समय निकाला और कोई एक दर्जन चुनावी रैलियों को संबोधित किया। इनमें लाखों की संख्‍या में लोगों ने हिस्‍सा लिया और सोनिया की बातों को बड़े ही गौर से सुना। इसी तरह सरदार पटेल उत्‍कर्ष समिति के बैनर तले भाजपा के बागी गोवर्धन झड़‍पिया और कांग्रेस कार्यकर्ताओं की सौराष्‍ट्र के विभिन्‍न जिलों में हुईं सभाएं भी प्रभावी रहीं। इसी के कारण भाजपा को सौराष्‍ट्र में कुछ सीटें गंवानी पड़ सकती हैं। अगर दूसरे चरण में भी कुछ ऐसा ही चला तो कहा जा सकता है जनता को मोदी नहीं परिवर्तन चाहिए।

मोदी का चुनावी जुआं


मोदी ने लिए इस बार एक चुनावी जुआं भी खेला है। पार्टी, संघ,विहिप कोई भी उनके साथ नहीं हैं सिर्फ और सिर्फ मोदी चुनाव लड़ रहे हैं। शहरी इलाकों में मोदी के पक्ष में माहौल दिखता है। अगर यही स्थिति गावों खासकर मध्‍य गुजरात के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में रही तो मोदी ही चाहिए का मुद़दा काफी प्रभावी हो जाएगा। और भाजपा को पूरे बहुमत के सा‍थ सत्‍ता मिलेगी। आंखों में सत्‍ता सुंदरी का सपना संजोए मोदी विरोधी नेता शंकरसिंह वाघेला, भरतसिंह सोलंकी,गोवर्धन झड़पिया मानते हैं कि मोदी के विकास के मुद़दे का हश्र चंद्राबाबू नायडू और शाइनिंग इं‍डिया के नारे की तरह ही होगा।

मोदी का मै‍जिक चलेगा क्‍या

अब तो 23 दिसंबर को ही पता चलेगा कि गुजरात को मोदी चाहिए या नही। मोदी का मैजिक अथवा मास हिस्‍टेरिया चलेगा या नहीं। इल सभी के बीच एक बात तय है कि गुजरात के इतिहास में पहली बार हो रहे मुद़दा या लहर विहीन चुनाव में एक व्‍यक्ति ने अपने मैजिक से सरगरर्मी ला दी। अब नतीजा चाहे जो भी हो। जीते तो गुजरात का ताज, बाद में भाजपा का भी। साथ में इं‍दिरा गांधी जैसे एक और करिश्‍माई नेता का तमगा वो भी बिल्‍कुल मुफ़त। इस सारे सवालों के बीच दांव पर लगा है भाजपा का भविष्‍य। अगर ये चुनाव जीते तो अगले साल होने वाले लोकसभा ओर दस राज्‍यों के विधानसभा चुनाव का रास्‍ता काफी आसान हो जाएगा अन्‍यथा मोदी और भाजपा दोनों का पतन तय है ।
खबरी ने बात इंदिरा गांधी ने शुरु की थी तो समाप्‍त भी इंदिरा गांधी से।

इं‍दिरा और मोदी में अंतिम समानता ।


इंदिरा गांधी ने सेवादल सहित कांग्रेस के सभी संगठनों को खत्‍म कर दिया । इसके बाद अपने नाम से ही नई कांग्रेस खड़ी कर ली । मोदी भी इसी रास्‍ते पर चल चुके हैं वे संघ और विहिप को खत्‍म करने की ओर अग्रसर हैं । इसी वजह से भी संघ और विहिप इस चुनाव में उनके साथ नहीं दिख रहे हैं ।
सवाल -इं‍दिरा गांधी रूल बुक के हिसाब से मोदी का अगला कदम क्‍या होगा
जवाब- भाजपा मोदी का गठन------
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मंगलवार, 11 दिसंबर 2007

वाजपेयी युग के ऐसे अंत की तो नहीं ही थी उम्‍मीद


बिन मौसम बरसात की तरह सोमवार शाम एक खबर आई कि जिन्‍हावादी नेता लालकष्‍ण आडवाणी प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के उम्‍मीदवार होंगे। इसके कई निहितार्थ और संदेश हैं।
* पहला यह कि लोकसभा के मध्‍यावधि चुनाव कभी भी हो सकते हैं।
* दूसरा.भाजपा और एनडीए की कमान लालजी के हाल होगी।
* तीसरा गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान की पूर्व संध्‍या पर ऐसी घोषणा कर यह संदेश देने की कोशिश करना कि अगला प्रधानमंत्री गुजरात से होगा। लालजी गांधीनगर से सांसद भी हैं।
* चौथी और सबसे महत्‍वपूर्ण यह कि भारत की राजनीति से वाजपेयी युग का औपचापिरक अंत हो गया है ।
* पांचवी यह कि भाजपा की कमान अब नरमपंथी हाथों से चरमपंथी हाथों में आ गई है। यह बाद दीगर है प्रधानमंत्री पद के सपने ने इन हाथों को अपने चेहरे पर जिन्‍हावाद का मुखौटा लगाने पर मजबूर कर दिया।

भरी दुपहरी में अंधियारा, सूरज अपनों से ही हारा

वाजपेयी जैसे महामना का भारतीय राजनीति के शिखर ऐसी गुमनामी से ओझिल होने की खबर की किसी को उम्‍मीद नहीं थी, खुद वाजपेयी को भी नहीं। ये वे ही वाजपेयी हैं जिन्‍होंने गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के बाद नरेन्‍द्र मोदी को सीख दी थी कि मोदीजी आपने राजधर्म का पालन नहीं किया। वे भारतीय राजनीति में नेहरू युग के अंतिम राजनेता हैं। उन्‍होंने संघ के प्रचारक, पत्रकार और राजनेता के रूप में सफलताओं और अदाओं के नए मुहावरे गढे। शब्‍दों के बाणों से सारे काम्‍पीटिटर्स को ससम्‍मान धराशायी किया। हटाने के पीछे वाजपेयीजी की ढलती उम्र, खराब सेहत और खुद उनकी रजामंदी की दुहाई दी गई। भाजपा में इतना बडा फैसला हो गया तो बडे घर यानी नागपुर की भी रजामंदी रही ही होगी। यह फैसला काफी पहले ले लिया गया था। भाजपा के संसदीय बोर्ड ने संघ के इशारे पर गुजरात चुनाव से ठीक पहले इसका ऐलान कर दिया। बेहतर होगा कि इस बात का आफिशियल ऐलान करने का मौका वाजपेयी को ही दिया जाता। आरएसएस की परंपरा तो कमसे कम ऐसा ही कहती है। आरएसएस को माई बाप मानने वालों से कम से कम इस भाईचारे की तो उम्‍मीद थी ही।
भाजपा फिर लौट रही है हिन्‍दुत्‍व की ओर
इसका मतलब यह है भी है कि भाजपा हिन्‍दुत्‍व की ओर लौट रही है। भाजपा की कमान अब नरमपंथी हाथों से चरमपंथी हाथों में आ गई है। यह बाद दीगर है प्रधानमंत्री पद के सपने ने इन हाथों को अपने चेहरे पर जिन्‍हावाद का मुखौटा लगाने पर मजबूर कर दिया था। यह तो एनडीए में स्‍वीकार्यता के लिए खेले गए प्रहसन का एक अध्‍याय भी था। पिछले लोकसभा चुनाव में शायनिंग इंडिया का नारा देने के बाद पराजय की धूल चाट चुकी भाजपा को अब फिर हिन्‍दुत्‍व और विकास के घालमेल से ही उम्‍मीदें हैं। भाजपा को लगने लगा है कि न खाली हिन्‍दुत्‍व से चुनाव जीता जा सकता हैं और न हीं सिर्फ विकास से। उन्‍हें लगा क्‍यों न दोनों का घालमेल कर दिया जाए। फिलहाल इसका लिटमस टेस्‍ट गुजरात विधानसभा चुनाव में जारी है। यही कारण है कि चरमवादी लालजी, नरमपंथी अटलबिहारी वाजपेयी के उत्‍तराधिकारी होंगे। आरएसएस को भी वाजपेयी कभी भी सूट नहीं करते थे, लेकिन सर्वस्‍वीकार्यता और गठबंधने के दौर में उसे अपने इस नरमपंथी स्‍वयंसेवक को मजबूरी में देश का सीईओ बनाना पड़ा था। भाजपा विकास के नारे के साथ हिन्‍दुत्‍व की ओर लौट रही है इसका सबसे बड़ा उदाहरण है नरेन्‍द्र मोदी। गुजरात में विकास ने नाम पर प्रचार अभियान चला रहे मोदी ने बीच प्रचार के दौरान पूर्व नियोजित तरीके से यू-टर्न लिया और सोहराबुद़दीन के बहाने भाजपा को वापस हिन्‍दुत्‍व की पटरी पर ला खडा किया। बिना संघ की हरी झंडी के मोदी इतना बड़ा कदम उठा ही नहीं सकते थे।
एक तीर से साधे कई निशाने
आडवाणी तो एक बहाना हैं। इसके बहाने कई तीर चले हैं। संघ कई दिनों से भाजपा को हिन्‍दुत्‍व की पटरी पर लाना चाह रहा था पर वाजपेयी के रहते भाजपा में यह सब संभव नहीं हो पा रहा था। अब तय है कि भाजपा का रिमोट कंन्‍टोल नागपुर केसरिया झंडे तले पहुंच गया है।
गुजरात में भाजपा में चल रही असंतुष्‍ट गतिविधियों के पीछे आडवाणी विरोधियों की शह को माना जा रहा है। भाजपा पर अपना बर्चस्‍व कामम करने के लिए मौजूदा हाईकमान राजनाथसिंह आडवाणी को कमजोर करने पर लगे हुए हैं। पिछले दिनों वे यह भी कह चुके हैं कि प्रधानमंत्री पद के उम्‍मीदवारों की दौड़ मे वे भी शामिल हैं।
गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेन्‍द्र मोदी आडवाणी की परछाई की तरह हैं। अगर मोदी कमजोर होते हैं या गुजरात में मोदी हारते हैं तो इससे आडवाणी कमजोर होंगे और यही पार्टी आलाकमान चाहते हैं। इसी चाल को भांपते हुए आडवाणी और मोदी पिछले कई दिनों से संघ पर दबाव बनाए हुए थे कि आडवाणीजी को प्रधानमंत्री पद का उम्‍मीदवार घोषित किया जाए। पहले दौर में तो आडवाणी और मोदी ने बाजी मार ली है। अब सारा गणित गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों पर निर्भर है। अगर मोदी जीतते है तो अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव और दस राज्‍यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा का तुरुफ का इक्‍का हिन्‍दुत्‍व और विकास का घालमेल ही होगा।
तब तक लालजी इसी बात से संतोष कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री न सही प्रधानमंत्री पद का उम्‍मीदवार ही सही।

रविवार, 9 दिसंबर 2007

प्रवीण तोगडिया फ्राम पाटीदार परिषद




नाम-प्रवीण तोगिडया
पद- अध्‍यक्ष गुजरात पाटीदार परिषद
जी हां वे तोगडियाजी तो वही हैं विहिप वाले पर उनके पाटीदार समाज के प्रेम ने उन्‍हें आज इस मुकाम पर ला खडा किया है ।
हिन्‍दुत्‍व के हीरो और विश्‍व हिन्‍दू परिषद के तेजाबी जुबान वाले नेता बोले तो अपने प्रवीणभाई तोगडिया इस बार गुजरात विधानसभा चुनाव के कैनवास से गायब हैं। गोधरा कांड और दगों के बाद हुए पिछले चुनाव में प्रवीण भाई तोगडिया ने मोदी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनके समर्थन में सौ से अधिक सभाएं की थीं। प्रस्‍तुत है प्रवीणभाई के गावब होने की कथा
ये कैसा‍ हिन्‍दुत्‍व
प्रवीणभाई तोगडिया मोदी विरोधी गतिविधियों से लगातार जुडे रहे। कारण कि मोदी के खिलाफ चल रहे असंतुष्‍टों के आंदोलन को प्रवीणभाई को खुले दिल से खुले तौर पर आशीर्वाद रहा है। इसका एक बडा कारण उनका पाटीटार होना भी रहा है बुजुर्गवार भाजपी नेता केशुभाई भी इसी पाटीदार समाज को बिलांग करते हैं। सरदार पटेल उत्‍क़र्ष समिति के बैनर तले सौराष्‍ट में हुए असंतुष्‍टों के सम्‍मेलनों को भी हमारे इस हिन्‍दूवीर ने संबोधित किया था।
प्रवीणभाई को हिन्‍दुत्‍व का डोज
असंतुष्‍टों के अगुवा प्रवीणभाई की इस हरकत के बारे में जब आरएसएस मुख्‍यालय और भाजपाई कंमाडर को खबर लगी तो उन्‍हें मुम्‍बई तलब किया गया। वहां उन्‍हें संघ के नेता मोहन भागवत, जिन्‍हावादी नेता आडवाणी और बीजेपी सुप्रीमो राजनाथसिंह ने हिन्‍दुत्‍व का कोरामिन डोज दिया गया। उन्‍हें याद दिलाया गया कि वे मात्र पाटीदार समाज ही नहीं समग्र हिन्‍दू समाज के नेता हैं लिहाजा पाटीदार समाज विशेष के मच पर जाकर एक प्रो हिन्‍दू सरकार के मुखिया को हटाने की गतिविधियों में शामिल होना उनके कद के नेता को शोभा नहीं देता है।
पाटीदार समाज के नेता हैं या हिन्‍दु परिषद के
अभी तक प्रवीणभाई हिन्‍दुत्‍व का कोरामिन डोज विहिप कार्यकर्ताओं को लगाया करते थे उसी का प्रयोग मुम्‍बई में उन्‍हीं पर हो गया। पेशे से कैंसर के डाक्‍टर प्रवीणभाई के पास हथियार डालने के अलावा और कोई दूसरा चारा नहीं बचा था। उन्‍होंने नेताओं की तिकडी को वचन दिया कि वे चुनाव तक गुजरात का मुंह भी नहीं करेंगे और वे रामसेतु के लिए जागित अभियान में लग जाएंगे।
गुजरात से दूर रहने की सौदेबाजी
खैर इसके बाद प्रवीणभाई सीधे तौर पर मोदी विरोधी अभियान से दूर हो गए पर परदे के पीछे कठपुतलियों का नाच जारी है। प्रवीणभाई को इसका सिला भी तुरंत ही मिल गया। राजस्‍थान की भाजपी सरकार ने उनके खिलाफ अजमेर में दर्ज त्रिशूल दीक्षा का मामला वापस ले लिया। जैसा कि सभी जानते हैं लगभग पांच साल पहले अजमेर में त्रिशूल दीक्षा के कार्यक्रम कांग्रेस की तत्‍कालीन अशोक गहलोत सरकार ने उनके खिलाफ मामला दर्ज कर लिया था। उसके बाद से समुद्र का काफी पानी बह गया। इस दौरान वहां भाजपा की सरकार भी बन गई पर मामला था कि वापस लेने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब बोलियो यह कैसी सौदेबाजी रही।
महत्‍वाकांक्षा के बीज
संघ परिवार और भाजपा के शीर्ष नेताओं में एक बार इस बात पर विचार किया था कि क्या गुजरात का नेतृत्व प्रवीण तोगड़िया को सौंप देना चाहिए ? यह प्रस्ताव तोगड़िया तक भी गया था. लेकिन उनका कहना था कि वे तो विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय महासचिव हैं और एक छोटे से राज्य का नेतृत्व उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं है बाद में उन्‍हें अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्‍हें लगा कि ये तो उन्‍होंने हाथ में आई थाली छोड दी है।
राजनीति का विहिप
गुजरात चुनाव में मोदी और हिन्‍दुत्‍ववादी ताकतों को मजबूत करने के प्रस्‍ताव के तोगिडया की विहिप दूर क्‍यों हैं? लाख टके का सवाल सारे हिन्‍दुओं के मन में घूम रहा है। पाटीदार समाज की खातिर प्रवीणभाई ने क्‍यों विश्‍व हिन्‍दू परिषद की विचारधारा को भी ताक पर रख दिया है? विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्‍यक्ष अशोक सिंहल ने मोदी को समर्थन क्‍या दिया प्रवीण भाई समर्थक संत नाराज हो गए। सवाल यह है कि हिन्‍दूओं के हित ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण हैं या प्रवीणभाई या नरेन्‍द्रभाई या केशुभाई का ईगो? क्‍या हिन्‍दूओं के व्‍यापक हितों के लिए इस यादवी घमासान को कुछ देर के लिए रोका नहीं जा सकता? यह बात मैं सिर्फ और सिर्फ इसलिए कर रहा हूं इन सारे महानुभावों की दुकानदारी हिन्‍दुत्‍व के नाम पर चलती है। दरअसल प्रवीणभाई की नजर बडे ही दिनों से सिंधल साहब की कुरसी पर है इस बहाने प्रवीणभाई को मौका मिल गया । पर अशोक सिंघल ने गुजरात में विहिप मार्गदर्शक मंडल के सदस्‍य और पंचखंडपीठाधीश्‍वर आचार्य धर्मेन्‍द्र को मैदान में उतरकर उनकी कुरसी के पीछे एक दावेदार लगा दिया है। आचार्य धर्मेन्‍द्र प्रवीणभाई से भी तेजाबी जुबान रखते हैं।
गौर करे
माना कि इन चुनावों मोदी हार गए और फिर दंगा हो गया------
सवाल- इसका जिम्‍मेदार कौन
जवाब- प्रवीण तोगडिया
बहुत कर ली सियासल अपनी-अपनी
अब जरा सुध ले लो हिन्‍दुओं की

मौत का सौदागर - कांग्रेस हुई पस्‍त, मोदी



गुजरात में कांग्रेस एक बार पुन: मोदी के जाल में फंस गई. मोदी की डेवलपमेंट एक्‍सप्रेस वि‍कास की पटरी से हिन्‍दुत्‍व की पटरी पर बारास्‍ता शोराबुद़दीन आ ही गई। मोदी को सोनिया ने मौत का सौदागर कह - कह कर खूब उकसाया जैसे कि लेग ब्रेक स्‍पिनर बल्‍लेबाज को अपनी फ़लाइटेट गेंद से क्रीज के बाहर निकालने की कोशिश करता है । मोदी ने इस बार ऐसा सिक्‍सर मारा कि कांग्रेस की सिटटी पिटटी गुम हो गई. विकास के नारे से साथ मोदी ने फिर से साम्‍प्रदायिक ध्रुवीकरण का जो धोबी पछाड दांव मारा उससे कांग्रेस तमतमाती नजर आ रही है।
ये किस्‍सा है दूध के जलों का, हम छांछ को
भी फूंक-फूंक कर पिया करते हैं


सोनिया को करारा जवाब
मोदी ने गोधरा की सभा में बड़ी ही चतुराई से सोनिया को राजनीतिक जवाब देते हुए जनता के मुंह से यह कहला ही दिया कि शोहराबुददीन जैसों का तो एनकाउन्‍टर ही होना चाहिए । मोदी के इस बयान को टाइम्‍स आफ इंडिया के अमदाबाद संस्‍करण ने अपने हिसाब से इंटरपिटेट कर छापा फिर क्‍या था तिस्‍ता सितलवाड स‍हित सारे मोदी विरोधी चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट में पंहुच गए । मानो मोदी को इसी घडी का इंतजार हो । मोदी को चुनाव आयोग ने नोटिस भी फटकार दिया । मारे चुनाव आयोग के डर के कि कहीं मौत के सौदागर वाली टिप्‍पणी सोनिया को भारी नहीं पड जाए कांग्रेस के बडबोले नेता क‍पिल सिब्‍बल ने कहा कि सो‍निया गांधी ने मौत के सौदागर शब्‍द़ का इस्‍तेमाल मोदी के लिए गुजरात के प्रशासन के लिए किया था। नहीं किया था ।


मौत का सौदागर कौन

शोहराबुददीन पर मोदी के बयान से जहां भाजपा को फायदे की बात चल पड वहीं मौत के सौदागर वाले मामले में कपिल सिब्‍बल के बयान से मुसिलम कुछ नाराज से लगे । इतने में कांग्रेस के दूसरे प्रवक्‍ता अभिषेक मनु सिंघवी ने यह कहकर सिब्‍बल की बात काट दी कि सोनियाजी ने मौत के सौदागर शब्‍द का उपयोग नरेन्‍द्र मोदी के लिए ही किया थात्र अब राम जाने सिब्‍बल सही हैं या सिंघवी। अब अगर सिंघवी साहब की बात को सही मानें तो सिब्‍बल साहब गलत हैं और सिब्‍बल साहब के बयान का दूसरा पक्ष देखें तो उसमें उन्‍होंने कहा कि मौत के सौदागर शब्‍द का इस्‍तेमाल तो गुजरात के प्रशासन के लिए था । प्रशासन बोले तो चीफ सेक्रेटरी और चीफ सेक्रेटरी पदनाम के नीचे लिखा होता है कि फलां- फलां राज्‍य के राज्‍यपाल के नाम से आदेशानुसार तो फिर क्‍या’---------।
अब इनके बारे में यही कहा जा सकता है कि


ये बदल से नहीं जेहन से अपाहिज हैं,
बहीं कहेंगे जो रहनुमा बताएगा


शेषन चिरायु हो
तत्‍कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने चौदह साल पहले जब चुनाव सुधार का बीड़ा उठाया था तब उन्‍हें खुद भी उम्‍मीद नहीं होगी कि अगले एक दशक में चुनाव प्रचार की तस्‍वीर इतनी बदल जाएगी। गुजरात के चुनाव इसकी एक ताजा बानगी हैं। कच्‍छ से चोर्यासी तक, पावागढ से अम्‍बाजी तक और पोरबंदर से भरूच तक किसी भी शहर,गांव और कस्‍बे में चले जाइए पहले के चुनाव की तुलना में एक सन्‍नाटा सा पसरा दिखाई देता है। कुछ साल पहले चुनाव में ऐसी मुर्दा शांति की कल्‍पना तक नहीं की जा सकती थी।
अगर सत्‍तर से नब्‍बे के दशक के चुनाव के बारे फिल्‍मी फ़लेश बेक की तरह सोचें तो- पता चलता है कि उस दौरान किस तरह शहर की हर दीवार चुनावी नारों और हर खंभा बैनर से पट जाता था। भौंगे बोले तो लाउडस्‍पीकर का कानफोडू शोर और रैलियों की रेलमपेल बाप रे बाप। इन सब के बीच शहर की गलियों से गुज़रते कितना मुश्‍िकल हुआ करंता था।
जिन ढीठ राजनेताओं पर नकेल डालना किसी के बस में नहीं था उन्‍हे स्‍कूली बच्‍चों के मानिंद आज्ञाकारी बनाने का श्रेय चुनाव आयोग को जाता है। इसलिए सलाम हैं इस परंपरा के वाहक टीएन शेषन को ।
संदेश
संदेश साफ है कि संवैधानिक संस्थाएँ अगर अपने अधिकारों का ठीक-ठीक इस्तेमाल करें तो इस देश में परिस्थितियाँ बदल सकती हैं।


कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता,
एक पत्‍थर तो तबियत से उछालो यारो

शनिवार, 8 दिसंबर 2007

मुन्ना सरकिट संवाद

सरकिट : भाई, ये अमेरिका का दुकानदार अपुन को भोत चीट किया। मुन्ना : क्यों क्या हुआ सरकिट?सरकिट: भाई वो अपुन को बोला कि ये रेडियो अमेरिका में बना है मगर ये इदर आके बोलता ये आल इंडिया रेडिया है।

मुन्ना भाई: सरकीट, तुम अपने नये जॉब में पइलेच दिन लेट नाईट तक काम किया? नया जॉब भोत पसंद आया तेरे कू?सरकित: अरे भाई, उदर कंप्यूटर के कीबोर्ड में ए बी सी सही ऑर्डर में नहीं लगा था उसी को सही करते करते इतना टैम लग गया।

मुन्नाभाई: अरे सरकिट आज तो जाह्न्वी के सामने अपुन की वाट लग गयी।सरकिट :क्या हुआ भाई?मुन्नाभाई: वो बोली कि अपनी अंगेजमेंट पर तुम मेरेकु रिंग देगा ना, तो मैं बोला श्योर रिंग देगा तुम बताओ लैंडलाईन पर या मोबाइल पर।

मुन्ना : अरे सरकिट गाड़ी में बम ध्यान से लगा, कहीं लगाते लगाते ही न फट जाये।सरकिट: चिंता मत कर भाई, अपुन के पास एक और बम है।

मुन्ना: अरे सरकिट तेरा बर्थडे कब का है?सरकिट: तेरह अक्टूबरमुन्ना: कौन से साल?सरकिट : भाई, हर साल।

मुन्ना: अरे सरकिट, गाड़ी के व्हील काये को उतार रहा है?सरकिट: भाई देखता नहीं है इदर लिखेला है कि पार्किंग फॉर टू व्हीलर्स ओन्ली।

मुन्ना: सरकिट इस गाड़ी का नाम क्या है।सरकिट : पता नहीं भाई, मगर टी से स्टार्ट होता है।मुन्ना: बड़ी कमाल की कार है भाई, अपुन का कार तो पैट्रोल से स्टार्ट होता है।

मुन्ना: भाई, अगर दुशमन का पनडुब्बी आयेंगा तो उसे कैसे मारेंगे?सरकिट: भोत सिंपल है भाई, जाके बस दरवाजे पर नॉक करने का, वो उसे खोल देंगे।

मुन्ना: कमाल की बात है सरकिट इदर अमेरिका में इमेल से भी शादी होती है।सरकिट: पर भाई अपन के उदर तो सिर्फ फीमेल से ही शादी होती है।
(एक पुरानी मेल पर आधारित)

गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

बेगानी शादी में म्यूजिक का 'आनंद'


अगर यह देखना हो कि इस देश में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की किस तरह धज्जियां उड़ाई जाती हैं तो आप शादी के इस सीजन में किसी भी एक शादी में चले जाएं। आप पाएंगे कि हर जगह रात 10 बजे , 11 बजे , 12 बजे के बाद भी लाउड म्यूजिक बज रहा है। चाहे कम्यूनिटी सेंटर हो या पार्क या फिर फार्म हाउस , कहीं भी इस कानून और सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन नहीं हो रहा कि रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक किसी भी तरह का शोर नहीं किया जा सकता , क्योंकि यह सोने का समय है। कोई इस कानून और आदेश को नहीं मान रहा। नतीजा यह कि आसपास रहने वाले लोग परेशान हो रहे हैं। वे पुलिस में शिकायत करते हैं तो वहां से जवाब मिलता है , भाई साहब , ' अब फंक्शन में तो गाना - बजाना होता ही है। अगर आपके यहां शादी हो तो क्या आपको अच्छा लगेगा कि आपके यहां पुलिस आए। ' कोई कहता है कि रात 12 बजे के बाद बंद करवाएंगे। उन्हें भ्रम है कि रात 12 बजे तक लाउडस्पीकर बजाना अलाउड है। वैसे इन पुलिसवालों को भी क्या कहें ! एसएसपी लेवल के अधिकारी कहते हैं कि लाउडस्पीकर बंद करना या अलाउ करना डीएम का काम है। एसपी से शिकायत करें तो उनका कहना है कि खुद मेरे घर के सामने म्यूजिक बज रहा है , मैं क्या कर सकता हूं ? और तो और , सारे नेता , अधिकारी और मंत्री ऐसे आयोजनों में जाते हैं और उनके ही सामने यह सारा तमाशा होता रहता है , लेकिन कहीं कोई रोक नहीं। ऐसी स्थिति में आम नागरिक बस परेशान होता रहता है और तब तक जागता रहता है जब तक गाना - बजाना बंद नहीं हो जाता। यह शुभ घड़ी कभी रात के 12 बजे , कभी 1 बजे और कभी 2 बजे तक भी आ सकती है। जागते - जागते वह बस यही सोचता है कि दिनभर की मेहनत के बाद रात को शांति से सोने के अपने अधिकार को बचाने के लिए किसका दरवाजा खटखटाए। वह सुप्रीम कोर्ट के जज को तो फोन नहीं कर सकता , न ही होम मिनिस्टर के टेलिफोन की घंटी घनघना सकता है। वह रात को सिर्फ 100 नंबर पर फोन कर सकता है। लेकिन जिस पुलिस की जिम्मेदारी है कि वह कानून का पालन करवाए , जब वही कानून तोड़ने वालों का साथ देती है , तो उसके पास कोई चारा नहीं बचता। इस बारे में आप क्या सोचते हैं ? क्या आपको लगता है कि इस मामले में कुछ किया जा सकता है ?

मोदी एक्सप्रेस विकास के ट्रैक से हिंदुत्व के ट्रैक पर


मोदी चुनावी रैलियों में कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर निशाना साध रहे हैंगुजरात में विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मसले पर एक टिप्पणी ने नया विवाद खड़ा कर दिया है। राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि मोदी एक्सप्रेस विकास के ट्रैक से हिंदुत्व के ट्रैक पर aरही है.मंगलवार को एक चुनाव सभा में नरेंद्र मोदी ने सोहराबुद्दीन के गुजरात पुलिस के हाथों मारे जाने को सही ठहराया है.रिपोर्टों के अनुसार 26 नवंबर 2005 को गुजरात पुलिस के आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) और राजस्थान पुलिस की एक मुठभेड़ में सोहराबुद्दीन शेख़ मारे गए थे.इस मामले में तीन आईपीएस अधिकारियों - डीजी वंज़ारा, राजकुमार पांडियन और दिनेश कुमार एमएन को गिरफ़्तार किया गया था जो अभी न्यायिक हिरासत में हैं.बाद में गुजरात पुलिस ने अदालत में स्वीकार किया कि कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मारे गए सोहराबुद्दीन शेख़ की पत्नी क़ौसर बी की हत्या हो चुकी है और उसके शव को जला दिया गया था.मामले की जाँच फिलहाल गुजरात की अपराध जाँच शाखा यानी सीआईडी कर रही है.कांग्रेस ने सोहराबुद्दीन शेख़ मामले पर नरेंद्र मोदी की टिप्पणी को 'तानाशाह रवैया' क़रार दिया है और समाजवादी पार्टी ने कहा है कि ऐसे व्यक्ति को क़ानून और संविधान में कोई विश्वास नहीं है और उसे किसी ज़िम्मेदारी के पद पर नहीं होना चाहिए.पर्यवेक्षकों के अनुसार भाजपा ने जब चुनाव अभियान शुरू किया था तब वो विकास की बात कर रही थी लेकिन पार्टी असंतुष्टों और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की रैलियों के बाद भाजपा ने आतंकवाद और हिंदुत्व का राग अलापना शुरू कर दिया है.'आतंकवाद' का रागटीवी चैनलों ने एक रैली के दौरान मोदी को सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मसले पर यह कहते हुए दिखाया, "जिस सोहराबुद्दीन पर आतंकवादी वारदातों में शामिल होने का आरोप हो, जिस सोहराबुद्दीन को चार-चार राज्यों की पुलिस खोज रही हो, उसके साथ कैसा सलूक होना चाहिए?"लोगों को तय करना है कि ऐसे मुख्यमंत्री का क्या करना है जो तानाशाह है और जिसे मानवाधिकारों के हनन पर किसी तरह का अफ़सोस नहीं हैअभिषेक सिंघवी, प्रवक्ता, कांग्रेसमोदी ने सोहराबुद्दीन की पत्नी की पुलिसवालों के हाथों कथित हत्या के बारे में कुछ नहीं कहा.मोदी ने चुनावी सभा में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार को चुनौती दी कि 'अगर वह उन्हें दोषी मानती है और अगर उसमें दम है तो वह उन्हें फाँसी दे दे.'आरोप-प्रत्यारोपइस बीच, कांग्रेस ने मोदी की सोहराबुद्दीन मुठभेड़ पर की गई टिप्पणी पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है.भाजपा गुजरात में विचारधारा, नेतृत्व और विकास के मुद्दों पर चुनाव लड़ रही है. लेकिन आतंकवाद भी देश के सामने बड़ा मुद्दा है और अगर मोदी इसे उठा रहे हैं तो इसमें गलत क्या हैजावडेकर, प्रवक्ता, भाजपाकांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि भाजपा को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए कि क्या वह मोदी की टिप्पणी से सहमत है.उन्होंने कहा, "जो मुख्यमंत्री लोगों से सवाल पूछते हैं कि क्या पुलिस को सोहराबुद्दीन को नहीं मारना चाहिए था... लोगों को ही तय करना है कि ऐसे मुख्यमंत्री का क्या करना है जो तानाशाह है और जिसे मानवाधिकारों के हनन पर किसी तरह का अफ़सोस नहीं है."दूसरी ओर, भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने कहा कि कांग्रेस का हाल अजीब है - 'जब मोदी आतंकवाद की बात करते हैं तो वे कहने लगते हैं कि मोदी विकास की बात नहीं कर रहे और विकास की बात करने पर कहते हैं कि वे अन्य मुद्दों से बच रहे हैं.'उन्होंने कहा, "भाजपा गुजरात में विचारधारा, नेतृत्व और विकास के मुद्दों पर चुनाव लड़ रही है लेकिन आतंकवाद भी देश के सामने बड़ा मुद्दा है और अगर मोदी इसे उठा रहे हैं तो इसमें ग़लत क्या है."

जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले

भारत में उत्तर प्रदेश हिंदी-उर्दू साहित्य की दृष्टि से बड़ा अमीर प्रांत है.
इसके हर नगर की मिट्टी में वह इतिहास सोया हुआ है, जिसको जाने बग़ैर न देश की सियासत को समझा जा सकता है और न इसकी संस्कृति विरासत को समझा जा सकता है.
राही मासूम रज़ा ने इसे 52 बेटों की माँ की उपमा से याद किया है. 52 कस्बों के इस प्रांत के एक नगर में कुछ दिन पहले मेरा जाने का इत्तिफाक़ हुआ था. शहरनुमा इस छोटी सी बस्ती बिजनौर में मुशायरा था. मुशायरे से पहले बस्ती में मुझे इधर-उधर धुमाया जा रहा था. मैं बातों में व्यस्त था-आँखें सुनने वालों के चेहरे पर थी और ज़मीन पर चल रहे थे पाँव.
रास्ता उत्तरप्रदेश के हर नगर की तरह मजनूँ के रेगिस्तान जैसा था जिस पर चलना आसान नहीं था. अचानक ठोकर लगी, पत्थर ने रोक कर चलते हुए क़दमों से मेरा नाम पूछा था. पैरों में जुबान नहीं थी...वे खामोश रहे. बस पत्थर मियाँ नाराज़ हो गए...मैं लड़खड़ा गया तो साथ वाले ने सहारा दिया और मुस्कुराते हुए कहा, "हुज़ूर यह बिजनौर है...यहाँ हर चीज़ क़ाबिले गौर है."
इस पत्थर की नाराज़गी पर मुझे अपना एक शेर याद आया,
पत्थरों की भी जुबाँ होती हैं दिल होते हैंअपने घर के दरो-दीवार सजा कर देखो
सर सैयद अहमद खाँ के साथी शिब्ली नौमानी ने इस्लाम के पैगम्बर हज़रत मोहम्मद की आत्मकथा की पहली किताब, 'सीरतुन्नबी' के नाम से लिखी थी. इस किताब के चौथे संकलन में एक हदीस के हवाले से लिखा है, "हज़रत मोहम्मद ने एक शाम की यात्रा में एक पत्थर को देखकर फरमाया था-मैं इस पत्थर को पहचानता हूँ जो पैगम्बरी से पहले मुझे सलाम किया करता था."
बिजनौर के रास्ते के पत्थर ने मुझसे भी बात की थी. लेकिन मैं ठहरा एक साधारण इंसान. उसकी बात पर ध्यान नहीं दे पाया और उसने क्रोध में आकर मुझे ठोकर मार दी...ख़ैर मैंने उस पत्थर को मुआफ़ कर दिया क्योंकि वह उस नगर का पत्थर था जहाँ कभी मिर्ज़ा ग़ालिब के प्रख्यात आलोचक अब्दुर्रहमान बिजनौरी रहते थे.
ग़ालिब के संबंध में उनका एक वाक्य काफ़ी मशहूर हुआ, "भारत में दो ही महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं, वेद मुकद्दस (पावन) और दूसरा दीवाने ग़ालिब." पता नहीं अब्दुर्रहमान बिजनौरी को वेदों की संख्या का ज्ञान था या नहीं. लेकिन एक पुस्तक की चार ग्रंथों से तुलना तर्क संगत नहीं लगती. फिर भी यह वाक्य बिजनौर के एक क़लमकार की कलम से निकला था और पूरे उर्दू-संसार में मशहूर हुआ.
ग़ज़ल का संसार
इस नगर के साथ दूसरा नाम जो याद आता है वह हिंदी ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार का है.
दुष्यंत नाम के दर्शन पहली बार महान नाटककार कालीदास की नाट्य रचना 'शाकुंतलम' में होते हैं. उसमें यह नाम एक राजा का था, जो शकुंतला को अपने प्रेम की निशानी के रूप में एक अंगूठी देकर चला जाता है. और शकुंतला की जीवन यात्रा इसी अंगूठी के खोने और पाने के इर्द-गिर्द धूमती रहती है, उज्जैन नगरी के राजा दुष्यंत के सदियों बाद बिजनौर की धरती ने एक और दुष्यंत कुमार को जन्म दिया.
इस बार वह राजा नहीं थे, त्यागी थे. दुष्यंत कुमार त्यागी. इस दुष्यंत कुमार त्यागी के पास न राजा का अधिकार था, न अंगूठी का उपहार और न ही पहली नज़र में होने वाला प्यार था. 20वीं सदी के दुष्यंत को कालीदास के युग की विरासत में से बहुत कुछ त्यागना पड़ा. इस नए जन्म में वह आम आदमी थे. आम आदमी का समाज उनका समाज था. आम आदमी की लड़ाई में शामिल होना उनका रिवाज़ था. आम आदमी की तरह उनकी मंजिल भी सड़क, पानी और अनाज था.
इस आम आदमी का रूप उनके शेरों में कुछ इस तरह है-
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिएअब हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
इस नुमाइश में मिला वह चीथड़े पहने हुएमैंने पूछा कौन, तो बोला कि हिंदुस्तान हूँ.
यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँहमें मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिएकहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
ये सारे शेर उन ग़ज़लों के हैं जो उनकी ग़ज़लों के संग्रह ‘साए में धूप’ में है.
यह पुस्तक उनके जीवन (जन्म-1933, मृत्यु-1975) की आख़िरी पुस्तक है. इन ग़ज़लों तक आते-आते वह नई कविता, नाटक और उपन्यासों की कई कृतियों से गुज़र चुके थे. इन कृतियों में 'एक कंठ विषपायी', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' और दूसरी गद्य तथा कविता की किताबें शामिल हैं.
हैदराबाद के लोकप्रिय प्रगतिशील शायर मख़दूम मुहउद्दीन ने कहा था, "शायर को ग़ज़ल उम्र के कम से कम 40 साल पूरे करके शुरू करनी चाहिए." मख़दूम ने इशारे में ग़ज़ल विधा के संबंध में बहुत अहम बात कही है. इसके द्वारा उन्होंने ग़ज़ल में ख़याल की खपत, इस खपत में शब्दों की बुनत और इस बुनत में ध्वनियों की चलत को आईना दिखाया गया है. ग़ज़ल विचार भी है और अभिव्यक्ति का मैयार भी.
दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है

दुष्यंत साहित्य में बहुत कुछ कर के और जीवन की बड़ी धूप-छाँव से गुज़र के ग़ज़ल विधा की ओर आए थे. दुष्यंत जिस समय ग़ज़ल संसार में दाखिल हुए उस समय भोपाल प्रगतिशील शायरों-ताज भोपाली और कैफ भोपाली की ग़ज़लों से जगमगा रहा था, इनके साथ हिंदी में जो आम आदमी अज्ञेय के ड्राइंगरूम से और मुक्तिबोध की काव्यभाषा से बाहर कर दिया गया था. बड़ी खामोशी से नागार्जुन और धूमिल की 'संसद से सड़क तक' की कविताओं में मुस्कुरा रहा था. इसी जमाने में फ़िल्मों में एक नए नाराज़ हीरो का आम आदमी के रूप में उदय हो रहा था.
दुष्यंत की ग़ज़ल के इर्द-गिर्द के समाज को जिन आँखों से देखा और दिखाया जा रहा था वह वही आदमी था जो पहले कबीर, नज़ीर और तुकाराम के यहाँ नज़र आया था, जिसने नागार्जुन और धूमिल के शब्दों को धारदार बनाया था. उसी ने दुष्यंत की ग़ज़ल को चमकाया था.
दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है.
विषय की तब्दीली के कारण, उनकी ग़ज़ल के क्राफ्ट में भी तब्दीली नज़र आती जो कहीं-कहीं लाउड भी महसूस होती है. लेकिन इस तब्दीली ने उनके ग़ज़ल को नए मिज़ाज के क़रीब भी किया है.
दुष्यंत ने केवल देश के आम आदमी से ही हाथ नहीं मिलाया उस आदमी की भाषा को भी अपनाया और उसी के द्वारा अपने दौर का दुख-दर्द गाया...
जिए तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तलेमरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए निदा fazali

बुधवार, 5 दिसंबर 2007

डिक्शनरी में जुड़ जाते हैं नए-नए शब्द


सेलेबूटैन्टीज़ (celebutantes), लीफ़ पीपर्स (leaf peepers), हूडीज़ (hoodies) और वैग्स (wags) में क्या समान है. यह सारे शब्द कॉलिन्स की अंग्रेज़ी डिक्शनरी के जून में प्रकाशित नए एडीशन में शामिल हैं.
कॉलिन्स का यह नया एडीशन इसका नवां संस्करण हैं. इस में सैंकड़ों नए शब्दों को जगह दी गई है. आप को अंग्रेज़ी के नए शब्दों और महावरों से रुबरु कराने के लिए हम लाए हैं कुछ ऐसे ही शब्द जो कुछ दिनों से प्रयोग में तो थे लेकिन शब्द-कोश में इनको शामिल नहीं किया गया था.
सच तो यह है कि हर वर्ष हज़ारों नए शब्द जन्म लेते हैं लेकिन उनमें से चंद ही को डिक्शनरी में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हो पाता है.
आप सोचते होंगे कि आख़िर नए शब्दों को डिक्शनरी में किन बुनियादों पर शामिल किया जाता होगा. इसका उत्तर ज़रा मुश्किल है लेकिन यह तय है कि ढ़ाई अरब शब्दों के डाटा-बेस को बहुत बारीकी से छान-बीन करने के बाद ही नए शब्द शामिल किए जाते है.
यह सारे शब्द अख़बारों, पत्रिकाओं, किताबों, वेबसाईट्स, रेडियो और टीवी के ट्रांसक्रिप्ट्स से इकठ्ठे किए जाते हैं.
इन में सबसे ज़्यादा ध्यान इस बात पर दिया जाता है कि इसे कितना और किस रूप में प्रयोग किया जा रहा है.
कुछ नए शब्द
आज के हमारे शब्द हैं ब्रेनफ़ूड (Brainfood), सेलेबूटैन्टीज़ (Celebutantes), एक्सरगेमिंग (Exergaming) जिटमो (Gitmo), हूडीज़ (Hoodies), लीफ़ पीपर्स (Leaf peepers), मैन-बैग (Man-bag), मैन फ़्लू (Man flu), मफ़िन टॉप (Muffin top), और वैग्स (Wags)
नए फ़ैशन के आने के बाद छोटी चोट या कमर से नीचे सरकती जींस या लो वेस्ट जींस के उपर नज़र आने वाले उभार को बयान करने के लिए हो सकता था कि आप को कोई शब्द नहीं मिलता लेकिन मफ़िन टॉप के आने के बाद से यह मुश्किल भी हल हो गई. यानी मफ़ीन टॉप उस मोटाई या चरबी को कहा जाता है जो स्कर्ट या कमरबंद के ऊपर नज़र आए.
सेलेबूटैन्टीज़ अमीर घराने की ऐसी नवयुवतियों और सुंद्रियों के लिए प्रयोग किया जाता है जो बिना किसी ख़ासियत के प्रसिद्ध हों.
इस संदर्भ में जेमाइमा गोल्डस्मिथ को ले सकते हैं जिनकी शादी पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी इमरान ख़ान से हुई थी. शायद सेलेबूटैन्टीज़ के कारण ही साइज़ ज़ीरो (size zero), शब्द का प्रचलन हो गया हो जिसका प्रयोग बहुत दुबली पतली युवतियों के लिए होता है. आपने हाल ही में पढ़ा होगा कि कई अंतरराष्ट्रीय फ़ैशन शो से बहुत पतली मॉडलों को हटा दिया गया था वैसी ही युवतियों के लिए साइज़ ज़ीरो (size zero), का प्रयोग किया जाता है.
फ़ैशन की दुनिया से ही आने वाला शब्द है मैन-बैग (man-bag) जोकि स्त्रियों के हैंडबैग की जगह पुरूषों के लिए होता है.
इंग्लैंड की फ़ूटबॉल टीम के खिलाड़ियों की पत्नी और गर्लफ़्रेंडस के लिए वैग शब्द सामने आया था और इसे काफ़ी लोकप्रियता मिली जिसके कारण इसे इस बार कॉलिन्स की डिक्शनरी में शामिल कर लिया गया. अभी तक तो यह शब्द फ़ूटबाल खिलाड़ियों की पत्नी और गर्लफ़्रेंड के लिए प्रयोग होता है, क्या मालूम आने वाले दिनों में क्रिकेट और अन्य खेलों के खिलाड़ियों की पत्नी और गर्लफ़्रेंड के लिए भी यह इस्तेमाल होने लगे.
यह शब्द प्रथमाक्षरी नाम यानी ऐक्रोनिम की तरह बना है. किसी और बैठक में हम ऐसे शब्दों पर भी विचार करेंगे.
मुहावरों का जन्म
लीफ़ पीपर्स ऐसे पर्यटकों को कहा जाता है जो ठंडे इलाक़ों में पतझड़ के मौसम को सराहने के लिए जाते हैं. दुनिया भर में पर्यावरण में आने वाले बदलाव को लेकर जो चिंता है उसने कॉरबन फ़ूटप्रिंट, कॉरबन ऑफ़सेट्टिंग और सीज़न क्रीप जैसे मुहावरों को जन्म दिया जिसे पर्यावरण में आने वाले बदलाव के कारण मौसम के चक्र में आने वाले बदलाव के लिए प्रयोग किया जाता है.
हूडीज़ ऐसे नौजवानों को कहा जाता है जो टोपी वाले जैकेट या टी-शर्ट का प्रयोग करते हैं ताकि चेहरा ठीक से नज़र न आए, वे संदिग्ध मालूम पड़ते हैं.
एक्सगेमिंग (exergaming) ऐसे वीडियो गेम के खेलने को कहा जाता है जिस में कठिन शारिरिक व्यायाम शामिल हो, दुनिया भर में मोटापे से जूझ रहे लोगों के लिए तरह तरह के व्यायाम के आने के कारण यह शब्द हमारे प्रयोग में आया.
मैन फ़्लू किसी पुरूष के ऐसे ज़ुकाम को कहा जाता है जिसे सहानुभुति पाने के लिए बढ़ा-चढ़ा कर बयान किया जाए हालांकि वह ज़ुकाम साधारण ही होता है.
ब्रेनफ़ूड ऐसे पदार्थ को कहते हैं जिस के बारे में ख़्याल किया जाता है कि इस से बुद्धि में वृद्धि होती है, इस में सिर्फ़ स्वस्थ खाना ही शामिल नहीं है इसमें संगीत वाद का बजाना, कोई विदेशी भाषा सीखना, पहेली या सूडोकू सुलझाना, शतरंज या दूसरा खेल खेलना भी शामिल है.
बदलते माहौल में नए शब्द
तो आपने देखा कि किस प्रकार नए शब्द बदलते परिप्रेक्ष्य में सामने आते हैं चाहे वह फ़ैशन हो, खेल हो, पर्यावरण हो या फिर आतंकवाद हो . 9/11 और 7/7 या फिर बेसलान वग़ैरह भी इसी सूची में शामिल हैं.
11 सितम्बर को अमरीका पर होने वाले हमले के लिए 9/11 का प्रयोग करते हैं तो सात जूलाई को इंग्लैंड में होने वाले बम बिस्फोट के लिए 7/7 का प्रयोग करते हैं इसी प्रकार रूस के बेसलान में 2004 में स्कूल के बच्चों को बंदी बनाने के लिए बेसलान का प्रयोग किया जाता है.
लंदन में आतंकवादी गतिविधियों की मौजूदगी के कारण एक और शब्द आया है जिसे लंदनिस्तान कहते हैं.

किस को मालूम कहाँ के हैं, किधर के हम हैं


ग़ज़नी, अफ़ग़ानिस्तान के एक इलाक़े का नाम है. फिराक़ के गोरखपुर, जिगर के मुरादाबाद की तरह महमूद ग़ज़नवी भी अपने नाम के साथ ग़ज़नी जोड़ता था.
वह नस्ल से तुर्क था, जिसने जीसस के हज़ार साल बाद ग़जनी में अपनी हुकूमत स्थापित की थी. महमूद ने भारत पर कई बार हमले किए, लेकिन इन हमलों का संबंध धर्म से कम और लूटमार के अधर्म से ज़्यादा था.
वह नाम से मुसलमान ज़रूर था, लेकिन हक़ीक़त में पेशेवर लुटेरा था, जो बार-बार अपने सिपाहियों के साथ आता था और जो इस लूट में मिलता था उसे लेकर चला जाता था.
पंडित नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में लिखा है, "महमूद एक लुटेरा था. धर्म को उसने लूटमार में एक शस्त्र की तरह इस्तेमाल किया था. आख़िरी बार वह हिंदुस्तानियों के हाथों ऐसा हारा कि उसे अपनी जान बचाकर भागने पर मजबूर होना पड़ा. उसके काफ़िले में जितनी औरते थीं वे यहीं के सिपाहियों के घरों में बस गईं."
महमूद के साथ गुजरात के सोमनाथ मंदिर का जिक्र भी इतिहास में मिलता है.
इस आक्रमण को इतिहास में धार्मिक विवाद का रूप भले ही दे दिया जाए, लेकिन पर्दे के पीछे की हक़ीक़त दूसरी है. लुटेरों के लालच या लोभ को मूरत या क़ुदरत से ज़्यादा धन-दौलत से मुहब्बत होती है और इस मुहब्बत में धर्म को बदनाम किया जाता है.
नरेश सक्सेना ने फ़ैज़ाबाद में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने पर एक कविता लिखी थी, कविता में वर्तमान के धर्मांतरण की तुलना अतीत के जुनून से की गई है, कविता की पंक्तियां हैं
इतिहास के बहुत से भ्रमों में सेएक यह भी हैकि महमूद ग़ज़नवी लौट गया थालौटा नहीं था वह-यहीं थासैंकड़ों बरस बाद अचानकवह प्रकट हुआ अयोध्या मेंसोमनाथ में किया था उसनेअल्लाह का काम तमामइस बार उसका नारा था-जयश्रीराम
महमूद ग़ज़नवी जिन औरतों और मर्दों को छोड़कर अपनी जान बचाकर भागा, उनकी औलादें कई-कई नस्लों के बाद कहाँ-कहाँ है, ईश्वर के किस रूप की पुजारी है, चर्च में उसकी स्तुति गाती है, मस्जिद में सर झुकाती हैं या मूरत के आगे दीप जलाती हैं. मैंने सैलाब नामक एक सीरियल के टाइटिल गीत में लिखा है.
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों सेकिस को मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं.
ख़ुदा की ज़मीन
कोई नगर हो या देश हो, उसमें बसने वाले या वहाँ से बाहर जाने वाले सब एक जैसे नहीं होते. गज़नी से महमूद भी भारत आया था और वे बुज़ुर्ग भी आए थे जो सारी दुनिया को एक ही ख़ुदा की ज़मीन मानते थे.
इन्हीं बुजुर्गों की नस्ल के एक मुहम्मद फ़तह खाँ के परिवार में, पंजाब के ज़िला होशियारपुर में 1928 में एक बेटे का जन्म हुआ. बाप ने उसका नाम मुहम्मद मुनीर ख़ान नियाज़ी रखा. अभी यह बच्चा मुश्किल से एक साल का ही था कि बाप अल्लाह को प्यारे हो गए.
बाप की मौत ने घर ख़ानदान के हालात ही नहीं बदले, बल्कि मुहम्मद मुनीर ख़ान नियाज़ी ने अपने चार लफ़्जों के नाम को दो लफ़्जी नाम में बदल दिया. अब इसमें न मुहम्मद था न ख़ान. सिर्फ़ दो लफ़्ज थे मुनीर नियाज़ी.
मुनीर नियाज़ी, फैज़ अहमद फैज़ और नूनकीम राशिद के बाद पाकिस्तान की आधुनिक उर्दू शायरी का सबसे बड़ा नाम है.
मुनीर अपने मिज़ाज, अंदाज़ और आवाज़ के लिहाज़ से अनोखे शायर थे. यह अनोखापन उनके शब्दों में भी नज़र आता है. शब्दों में पिरोए हुए विषयों में भी जगमगाता है और उस इमेजरी से भी नकाब उठाता है जो उनकी शायरी में एक भाषा की रिवायत में कई मुल्की और ग़ैरमुल्की भाषाओं की विरासत को दर्शाती है.
वह पैदायशी पंजाबी थे. पंजाब की अज़ीम लोक विरासत में शामिल सूफियाना इंसानियत, जिनका शुरूआती रूप बाबा फ़रीद के दोहो में बिखरा हुआ है, मुनीर नियाज़ी की नज्मों और ग़ज़लों की ज़ीनत है.
उनकी शायरी का केंद्रीय किरदार, समय-समय पर बदलती रियासत से दूर होकर उन राहों में चलता फिरता नज़र आता है जहाँ दरख़्त, इंसान, पहाड़, आसमान परिंदे, दरिंदे और नदियाँ एक ही ख़ानदान से सदस्य है और जो एक दूसरे के दुख-सुख में बराबर शरीक रहते हैं.
इस शायरी में ज़मीन और आसमान के बीच ज़िंदगी उन हैरतों में घिरी दिखाई देती है जो सदियों से सूफी संतो की इबादतों का दायरा रही हैं.
इन हैरतों की झिलमिलाहटों में न ज़मीन की सीमाएँ हैं, न विज्ञान की लानतों से गंदी होती फज़ाएँ हैं. इनमें मानव जीवन प्रकृति का चमत्कार है, जो सीधा और आसान नहीं है. गहरा और पुरइसरार है.
महमूद ग़ज़नवी तलवार के सिपाही थे और मुनीर नियाज़ी कायनात में कुदरत की रहमत की गवाही थे. उनकी रचनाओं की कुछ मिसालें देखिए.
अभी चाँद निकला नहींवह ज़रा देर में उन दरख्तों के पीछे से उभरेगा.और आसमाँ के बड़े चश्त को पार करने की एक और कोशिश करेगा (कोशिशे राख्गाँ)
गुम हो चले हो तुम तो बहुत ख़ुद में ए मुनीरदुनिया को कुछ तो अपना पता देना चाहिए
आदत सी बना ली है तुमने तो मुनीर अपनीजिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना
मुनीर नियाज़ी ने सोमनाथ मंदिर की दौलत की लालच में न अल्लाह का काम तमाम किया और न बाबरी मस्जिद को तोड़कर जय श्रीराम कहा.
उसने सिर्फ़ अपने लफ़्जों में प्रेम और अहिंसा के पैगंबरो-बाबा फ़रीद, वारिस शाह आदि का पैग़ाम आम किया.
मुनीर नियाज़ी (1828-1906) अपनी तबीयत की वजह से आबादी में तन्हाई का मार्सिया था. इस तन्हाई को बहलाने के लिए उन्हीं के एक इंटरव्यू के मुताबिक उन्होंने 40 बार इश्क किया था, लेकिन यह गिनती भी उनकी बेक़रारी को सुकून नहीं दे पाई. इस मुसलसल बेक़रारी के बारे में उन्होंने लिखा है:
इतनी आसाँ ज़िंदगी को इतना मुश्किल कर लियाजो उठा सकते न थे वह ग़म भी शामिल कर लिया
मुनीर नियाज़ी ने कई पाकिस्तानी फ़िल्मों में गीत भी लिखे थे, इनमें कुछ गीत अच्छे और नर्म लफ़्जों के कारण काफ़ी पसंद भी किए गए. कुछ गीतों के मुखड़े यूँ हैं:
उस बेवफ़ा का शहर है और हम हैं दोस्तो...
या फिर
कैसे-कैसे लोग हमारे दिल को जलाने आ जाते है
और एक यह भी,
जिसने मेरे दिल को दर्द दिया, उस शख़्स को मैंने भुला दिया
मुनीर नियाज़ी वक़्त और उसके ग़ैर-इंसानी बर्ताव से इतने उदास थे कि चालीस बार इश्क़ करने के बावजूद अपने माँ-बाप की इकलौती औलाद की तरह वह तमाम उम्र इकलौते ही रहे. उन्हें अपना नाम अजीज़ था कि इसमें किसी और की शिरकत उन्हें गवारा नहीं हुई. उनके वारिसों में उनकी बेवा के अलावा कोई और नहीं.
शाम आई है शराबे तेज़ पीना चाहिएहो चुकी है देर अब ज़ख्मों को सीना चाहिए।

निदा फ़ाजलीशायर और लेखक

सोमवार, 3 दिसंबर 2007

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रविवार, 2 दिसंबर 2007

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किसी के इतने पास न जाके दूर जाना खौफ़ बन

कदम पीछे देखने परसीधा रास्ता भी खाई नज़र

को इतना अपना न बनाकि उसे खोने का डर लगा

डर के बीच एक दिन ऐसा न आयेतु पल पल खुद को ही खोने

के इतने सपने न देखके काली रात भी रन्गीली
खुले तो बर्दाश्त न होजब सपना टूट टूट कर बिखरने लगेकिसी को इतना प्यार न करके बैठे बैठे आन्ख नम हो जायेउसे गर मिले एक दर्दइधर जिन्दगी के दो पल कम हो जायेकिसी के बारे मे इतना न सोचकि सोच का मतलब ही वो बन जायेभीड के बीच भीलगे तन्हाई से जकडे गयेकिसी को इतना याद न करकि जहा देखो वोही नज़र आयेराह देख देख कर कही ऐसा न होजिन्दगी पीछे छूट जाये