गुरुवार, 29 नवंबर 2007

नो स्मोकिंग : फिर तलब, है तलब [No Smoking : Music Review]
[वैधानिक चेतावनी : नो स्मोकिंग का संगीत स्वास्थ्य के लिये हानिकारक साबित हो सकता है.. बार बार की रिवाईंडिंग आपकी उंगलियों को नुकसान पहुंचा सकती है.. और संगीत का हर कश आपको इस एल्बम का तलबगार बना सकता है ]बीड़ी की आग अभी तक बुझी नहीं थी, कि गुलज़ार साब विशाल के साथ सिगरेट लेकर हाज़िर हो गये हैं... नो स्मोकिंग का संगीत आ गया है.. हालांकि हर गीत सिगरेट विरोधी स्वर लिये हुए है मगर यकीन मानिये इसके संगीत के एक एक कश में बहुत नशा है.. एक बार सुनने के बाद फिर से सुनने कि तलब लगती है.. बहुत अल्हदा किस्म की फ़िल्म लग रही है नो-स्मोकिंग और संगीत ने भी इस धारणा को और मजबूत बना दिया है... एल्बम के सारे गीत फ़िल्म की नायिका (सिगरेट.. शायद खलनायिका भी कह सकते हैं) और नायक जौन के उसके मोहपाश में बंधे होने की दास्तां को बयां करते हैं...सिगरेट की खौफ़नाक़ खूबसूरती के मंज़र बहुत खूबी से इस एलबम के गीतों में उकेरे गये हैंगुलज़ार साब ने अपने गीतों मे सिगरेट पीने वालों की ज़िन्दगी के एक्स-रे, सर्जरी और पोस्ट-मार्टम कविताई अन्दाज़ में पेश किये हैं..एल्बम का पहला गीत अदनान सामी ने गाया है और क्या खूब गाया है.. सिगरेट की सुलगन और ज़िन्दगी की क़तरा कतरा पिघलन को, उलझन को डूब के गाया हैफिर तलब, है तलब...बेसबब, है तलबशाम होने लगी है, लाल होने लगी हैजब भी सिगरेट जलती है, मैं जलता हूंआग पे पाँव पड़ता है, कमबख़्त धुएं में चलता हूं"फिर किसी ने जलाई, एक दिया सलाईआसमां जल उठा है, शाम ने राख उड़ायी"नायक के अन्दर की धीमी धीमी सुलगन, और धीरे धीरे ही राख में तब्दीली को गुलज़ार अपने ही अन्द्दज़ में बहुत खूबी से कह जाते हैं"उपले जैसे जलता हूं, कम्बख्त धुएं में चलता हूं"और विजुअल कन्स्ट्रक्शन देखिये"लम्बे धागे धुएं के सांस सिलने लगे हैंप्यास उधड़ी हुई है, होठ छिलने लगे हैंशाम होने लगी है, लाल होने लगी है" (ज़िन्दगी की शाम, खून की लाली?)गीत सुनने के बाद ये अन्दाज़ा लगाना नामुमकिन हो जाता है कि गीत का सबसे मजबूत पक्ष अदनान की गायकी में है, विशाल की शानदार कम्पोजिशन में या गुलज़ार साब के शब्दों मे.. तीनों का मेल एल्बम को बेहतरीन शुरुआत देता है. गीत बाद मे सुनिधि की अवाज़ में भी है, और वो गीत भी बहुत खूबसूरत बन पड़ा है.. मगर अदनान के सामने थोड़ा फीका सा लगता है..अगला गीत "फूंक दे" भी दो बार है, रेखा भारद्वाज और सुखविन्दर सिंह के स्वरों में.. यकीन मानिये दोनो वर्शन दो अलग अलग गीतों सा मज़ा देते हैं.. रेखा का वर्शन रस्टिक फ्लेवर में है.. और गुलज़ार साब के बोल सिगरेट के ज़हर के अपने ही तरीके से बयां करते हैं"हयात (ज़िन्दगी) फूंक दे, हवास (रूह) फूंक देसांस से सिला हुआ लिबास (शरीर) फूंक दे.. ""पीले पीले से जंगल में बहता धुआंघूंट घूंट जल रहा हूं, पी रहा हूं पत्तियां" (तम्बाक़ू की)कश लगा एल्बम का अगला गीत है.. सुखविन्दर, दलेर मेहंदी और स्वयं विशाल भारद्वाज की आवाज़ में कव्वालीनुमा गीत है... तीनों गायकों का तालमेल अच्छा बन पड़ा है.. गीत अल्बम को मोनोटोनस होने से बचाता भी है, फिर भी एल्बम क सबसे कमजोर गीत है"ये जहान फ़ानी है...बुलबुला है, पानी हैबुलबुलों पे रुकना क्या, पानियों पे बहता जा"इसके बाद बारी आती है एल्बम के सबसे खूबसूरत लिखे गये गीत ’एश-ट्रे’ की.. विशाल की कम्पोसिशन गीत के मूड के मुताबिक है और और नये गायक देवा सेन गुप्ता इस मुश्किल से गीत को सफलता से निभा गये हैं..."बहुत से आधे बुझे हुए दिन पड़े हैं इसमेबहुत से आधे जले हुई रात गिर पड़ी हैंये एश-ट्रे भरती जा रही है"बहुत खूब!फिर तलब... है तलब...इस तलब के लिये बहुत बहुत शुक्रिया..विशाल को, गुलज़ार साब को, और अनुराग कश्यप को, जिन्होने बिकाऊ संगीत के बजाय ऐसा संगीत चुनने में हिम्मत और ईमानदारी दिखायी जो स्क्रिप्ट के अनुरूप है..और मैं फिर से री-वाईण्ड कर रहा हूं...

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