शुक्रवार, 30 नवंबर 2007


LOVE STORY # 544:खूंटी पर टंगी गिटार का दर्द वायलिन हो गया था
देहरादून का वह दूसरा शख्स था जिसने कहा कि उसने गिटार सीखने की कोशिश की थी. जवान होते लड़के शायद ऐसा सोचते हैं कि जिस लड़की को वे पसंद करते हैं, शायद उनकी बात गिटार के जरिये समझ लेंगी. पर उनका ध्यान गिटार पर कम होता है, लड़की पर ज्यादा. और इसलिए गिटार के जरिये कही जाने वाली बात उस लड़की तक अक्सर आसानी से नहीं पंहुच पाती. एक क्योंकि वह संगीत की भाषा है. दो वह संगीत ऐसा है, जो अभी सीखा जा रहा है. तीन लड़की के कान ऐसे पारखी नहीं है कि गिटार के शोर में से दिल की बात को छान कर अलग कर लें और लड़के की बात समझ लें. जब लड़की अरेंज्ड मैरिज कर लेती है, तो फिर वह भी गिटार क्लास छोड़कर दुनियादार होने के उपक्रम में शामिल हो जाता है. खूंटी पर सालों से टंगी गिटार ढलती हुई शाम में अपनी आत्मा को वॉयलिन होता महसूस करती है.
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LOVE STORY # 545: जब तक यार, प्यार और कम्यूनिस्ट रहेंगे, कॉफी हाउस का जिंदाबाद रहेगा
इंडियन कॉफी हाउस अभी भी हैं और चल रहे हैं. अब वहां लोहिया टाइप के चश्मे या खद्दर पहने बैठे लोग कम दिखलाई पड़ते हैं. सिगरेट पीने की इजाज़त अब वहां नहीं है और इसलिए जो क्रांति श्रांति की बात की जाती थी, वह विमर्श के दायरे से बाहर हो गई है. इंडियन कॉफी हाउस में अभी भी नेहरू और दक्षिण की फिल्मी हिरोइनों की पूर्वज रागिनी के पोस्टर दीवारों की शोभा बढ़ा रहे हैं. नेहरू का गुलाब स्याह पड़ गया है और रागिनी के चेहरे का रंग उड़ चुका है. कॉफी हाउस अब बुद्धिजीवियों से ज्यादा बेढब टाई पहने सेल्स या मेडिकल रिप्रजेंटेटिव्स और प्रेमी जोड़ों का अड्डा हो चुका है. बाकी ज्यादातर लोग या तो सरकारी काम से आये मुलाजिम या फर्स्ट रेट लूजर्स.
इंडियन कॉफी हाउस का उत्तर और हिंदी भारत के लिए सबसे बड़ा योगदान ये है कि उसने कांटे छुरी की मदद से दोसा खाने की कोशिश करना सिखवा दिया. इस बदले हुए ग्लोबलाइज्ड संसार में ये योगदान किसी भी तरह से लार्ड मैकॉले से कम कर के नहीं आंका जा सकता. यह समझना मुश्किल है कि कांटे छुरी से खाना जाने बिना भारत आईटी जैसे क्षेत्रों में तरक्की कैसे कर पाता. और क्या यह महज संयोग है कि इंडियन कॉफी हाउस जिस बंगलौर से शुरू हुए, वर्ल्ड का फ्लैट होना भी वहींच से शुरू हुआ. फर्क सिर्फ इतना है कि ये योगदान खालिस स्वदेसी है भले ही आर्यों और द्रविड़ों को अलग देखने वाले नफरत के पुजारियों के फूले हुए नथुने इसमें भी कोई साजिश की बू महसूस करें. आज भी वह बाहर कुछ खाने पीने, पेट भरने का सबसे सस्ता, अच्छा और टिकाऊ ठीका है. इसलिए कॉलेज के लड़के लड़कियों, हारे हुए नेता और पेशे से परेशान पत्रकार अक्सर इंडियन कॉफी हाउस की टेबलों पर मंडराते दिखेंगे. अगर कॉफी हाउस न होते तो पता नहीं वे क्या कुछ कर बैठते. वे हमारी स्मृति में रेडियो, ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों, भाप के इंजन, केतलियों की तरह प्राचीन और आशवस्तिबोध से भरे हुए हैं.इंडियन कॉफी हाउस अभी भी एक बड़ा कॉपरेटिव है और अजगर सबसे ज्यादा मुरीद वहां काम कर रहे लोगों के सेवाभाव का है. बुर्राक सफेद कलफ लगी वर्दी अब तो फौजियों में भी देखने के नहीं मिलती और उनकी कलगी लगी पगड़ियां. इंडियन कॉफी हाउस को भारत में शुरू हुए इस अगस्त में पचास साल हो गये. इनके असर के मिसाल ये है कि चंडीगढ़ के सैक्टर 17 सिटी सेंटर में जब कॉफी हाउस के पास बरिस्ता खुला तो उसे अपनी दुकान बढ़ानी पड़ी. 1964 में खुले इस आईसीएच का भी स्टाफ दक्षिण का है और दोसे के साथ केचप देने के बारे में पूछ लेता है. जो पंजाबी लोग माइंड नहीं करते. इन पचास सालों में आईसीएच की हर टेबल के पास अपनी कहानियां होंगी बताने को. प्यार की, बगावत की, क्रांति की, तख्तापलट, धोखे, और उदासी की. हर बार टेबल एक नये दृश्य, एक नई नाटकीयता, एक नये प्रस्ताव, समझौते, बातचीत, संभावना के लिए तैयार होती हुई. कॉफी हाउस की एक टेबल के पास अजगर से कई गुना ज्यादा प्रेम कहानियां होंगी. गनीमत ये कि वे ब्लॉग नहीं करतीं. :-) :-) :-) कई जगह वे मूक और निरीह गवाह बदली जा रही हैं माधुरी दीक्षित के बदन की तरह मोल्डेड प्लास्टिक मेज- कुर्सियों से. कई जगह बेयरों की वर्दी उतनी उजली नहीं है. पर कॉफी हाउस हैं और जब तक दुनिया में प्यार, यार और कम्यूनिस्ट रहेंगे, कॉफी हाउस का जिंदाबाद रहेगा.क्यों?
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LOVE STORY # 546: हाथ पकड़ लिया, कहीं गुम जातीं तो कहां ढूंढते कैसे पहचानते
वे पूर्वज थे. चार पीढ़ी पहले के. तब मेरठ ही ज़िला था. उनकी शादी हुई तो उन्होंने एक दूसरे को पहले कभी नहीं देखा था. दिन में जब रौशनी होती, तो उनके मुंह पर घूंघट होता, घर के भीतर चहलपहल और सामूहिक परिवार का लिहाज. वह ज्यादातर खेत, आहते या बैठक में जहां औरतें झांक सकती थी, पर आ नहीं. शाम को जब वे साथ होते तो लैम्प की स्याह रौशनी होती. उनकी पहचान अंधेरे की ज्यादा थी रोशनी की कम. एक बार किसी काम से दोनों दिल्ली गये.चांदनी चौक में. वहां भीड़ थी. अजनबियत थी. उन्होंने कहा यहां घूंघट मत करो. वह धीरे से मान गईं. इक्के से उतरते हुए उन्होंने धीरे से उनका हाथ पकड़ लिया. कहीं गुम जातीं तो कैसे खोजते उन्हें, पहचानते कैसे. उनके अंधेरे की पहचान वहां कैसे काम आती. उनकी छोटी सी उंगलियों पर शर्म का पसीना था, उनके हाथों में जिम्मेदारी की पकड़. उन्होंने एक दूसरे की आंखों में देखा. लगभग पहली बार. वह मुस्कुराई. पहली बार इन आंखों में उनका मुस्कुराना दर्ज हुआ. चांदनी चौक से खरीदी चूड़ियों और माटी के इत्र की तरह ये निशानियां नई पहचान थी एक दूसरे से. एक लम्बी उम्र तक. परछाइयों की तरह हम तक.
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Monday, November 26, 2007

LOVE STORY # 547:इच्छा का पिलपिला सेब और दुनिया के आखिरी आदम-हव्वा
तेरह साल हो गये उन्हें मिले. फिर जाकर उन्होंने शादी का फैसला किया. इस बीच दोनों की जिंदगियों में कई लोग आये, कई रिश्ते बनते बनते रह गये, कई छोटे रिश्ते बने जो टूट गये. कई बार घर वालों ने अरेंज्ड मैरिज की बात चलाई. वे सामने वाले शख्स को, रिश्ते को, नियति को, जन्मकुंडलियों को, दिल के अरमानों और दिमाग के तर्कों को अपनी कसौटियों पर कसते रहें. इस बीच बीच नदियों में पानी बहता रहा, ग्लेशियर पिघलते रहे, ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती रही, बच्चे पैदा होते रहे, कैफे कॉफी डे नये नुक्कड़ों पर अपनी शाखाएं खोलते रहे. वे ऐसे ही सीसीडे पर एक दिन मिले. और बातों बातों में उन्हें पता चला कि दोनों ने अपने सारे परम्यूटेशन कॉम्बीनेशन लगाकर देख लिये हैं. उनके सारे संभावित साथी या तो ब्याह रचा कर घर बसा चुके हैं या फिर ऐसी बीमारियों के शिकार हैं ( जैसे कैंसर या अकेलेपन या देवत्व) कि नियति के एटीएम पर शादी वाला बटन उन्होंने दबाना ही जरूरी नहीं समझा. इच्छा वाला सेब जो तेरह साल पहले उनके जहन में प्यार बनकर कौंधा था, अब थोड़ा पिलपिला होने तो लगा था, पर अगले किसी भी पल वह पूरी तरह से सड़ सकता था. उस पल से पहले तक उनके पास मौका था. उन्होंने एक दूसरे को कुबूल कर लिया. और सुनामी लहरों, एटमी धमाकों, गृह युद्धों, नरेंद्र मोदी और जॉर्ज डबल्यू बुश की नफरत के बाद की बची हुई दुनिया के वे आखिरी आदम और हव्वा थे.
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Saturday, November 24, 2007

LOVE STORY # 548: नेरूदा की किताब देकर वह अमेरिका चली गई जिसमें वह कविता थी- टुनाइट आई राइट माई सैडेस्ट लाइन्स
वे जेएनयू में साथ थे. वह बंगाल का था. वह दिल्ली की पंजाबी. वह मस्तमौला थी. वह काफी चुप, गहरा और संवेदनशील. वह जिंदगी को अब और यहां में जीती थी. वह थ्योरीज बनाता था और सियासी तौर पर सही होने और रहने की कोशिश करता था. दोनों अकेले थे. पहले दोनों का अकेलापन मिला. फिर दोनों. साथ हो गया तो कुछ ही दिनों में साथ अकेलापन ढूंढने लगा. उसने उसे एक दिन पाब्लो नेरूदा की कविताओं का पेंगुइन बुक्स द्वारा प्रकाशित पेपरबैक संग्रह सलेक्टेड पोयम्स बतौर तोहफा दिया जिसमें उसने लिखा- टू माई डियरेस्ट डी, विथ द लव ऑफ माई लाइफ, फ्रॉम टी. फिर कुछ ही दिनों बाद वह अमेरिका चली गई. कुछ और पढ़ने को बाकी रह गया था. कुछ और गढ़ने को भी. वह जेनयू में बहुत दिन अकेला रहा. वह अमेरिका में कुछ दिन अकेले रही. उसके अकेलेपन ने फिर उसके लिए साथ ढूंढ लिया था. उसने नेरूदा वाली वह किताब अपने एक दोस्त को दे दी. नेरूदा की उस किताब में नेरूदा के जीवनकाल की बहुत सारी कविताएं हैं. पर उनकी बेशकीमती प्यार वाली वे कविताएं बहुत कम, जो भीतर के रूमी को फ़ना होने के लिए जगाती हैं. उनमें अलग होने के बाद की एक कविता (टुनाइट आई राइट माई सैडेस्ट लाइन्स) है, जो दुनिया भर के प्रेमी लोग सबसे ज्यादा पढ़ते हैं. कविताओं की एक बेहतरीन साइट्स प्लेजियरिस्ट पर आप देख सकते हैं, कि सर्वाधिक लोकप्रिय कविताओं में इस लेटिन कविता के दो प्रारूप सातवें और छब्बीसवे नंबर पर हैं. और दोनों को जोड़कर वे सबसे लोकप्रिय कविताओं में संभवतः टॉप पर हों. पेंगुइन बुक्स की तरफ से जिसने भी इसमें कविताओं को छांटा है, वह कोई बहुत ही उसूल पसंद व्यक्ति जान पड़ता या फिर एकेडमिक, जिसने शायद अपने जिंदगी में भी अकेलापन ज्यादा भोगा था और साथ का सुख कम. उनमें क्रांति थी, सियासत थी, दुख था, पसीने, शराब, धुएं की मिलीजुली पब वाली गंध थी. उसमें धोखा था. ताज्जुब की बात ये थी कि नेरूदा की सुंदरतम प्रेम कविताएं 1973 में उस संग्रह में से लगभग गायब थी. संकलनकर्ता के चश्मे से गुजरकर जो कविताएं इस पैपरबैक ने विशेष भारतीय संस्करण में पंहुचाई थी, वह शायद जेएनयू के इस लड़के को ध्यान में रखकर छांटी गई थी. शायद अमेरिका जाने के बाद जब उसने नेरूदा की प्रेम कविताएं पढ़ी होंगी, तो उसे अपने तोहफे की वजह से उस जज्बात का अपराधबोध और हुआ होगा, जिसके कुहासे में उनका अकेलापन साथ हुआ था. वह उसे वे शब्द देकर गई थी जो उसके चले जाने पर वह कहना चाह सकता था. प्यार के बाद के अकेलेपन की वह महानतम रचना थी. है.
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Friday, November 23, 2007

LOVE STORY # 549: मरलिन मनरो की कविताएं
मरलिन से प्यार करने वालों की कमी नहीं. बहुत कम मर्द लोग ऐसे होंगे जिन्हें मरलिन से, उसकी तस्वीरों से, उसकी अदाओं से कभी न कभी प्यार न हुआ होगा. बहुत कम औरतें होंगी जिनके अंदर एक मरलिन मनरो नहीं छिपी होगी. उससे बचना कितना मुश्किल है. और उसकी जिंदगी में प्यार के अलावा कितना कुछ था, दौलत, शोहरत, आर्थर मिलर, जॉन एफ, डिप्रेशन और आत्महत्या. इंटरनेट पर पढ़ी गई ये कविताएं पता नहीं मरलिन ने खुद लिखी या नहीं, पर जिसने भी लिखी हैं, शायद खुद को मरलिन समझ कर ही लिखी हैं. शायद खुद मरलिन ने ही. पता नहीं ये साहित्यिक विमर्श का हिस्सा बनने लायक हैं या नहीं, पर यहां आप पढ़ सकते हैं कि आयन रैंड ने क्या लिखा था मरलिन के मरने पर .Iकभी मैं तुम्हें प्यार कर सकती थीऔर कह भी देतीपर तुम चले गयेऔर फिर देर हो गईफिर मुहब्बत एक भुला दिया गया लफ्ज़ हो गयातुम्हें याद तो है न
II ऐ वक़्त दया करोइस थके हुए इंसान को वह सबभुला देने में मदद करोजो तकलीफदेह हैमेरा मांस खाते हुएथोड़ा कम कर दो मेरे अकेलेपन कोथोड़ा ढीला छोड़ दो मेरे मन को
IIIहै कोई मदद करने वालामदद चाहिए कि मैं महसूस करती हूंउस वक़्त जिंदगी को अपने करीब़ आतेजब मैं चाहती हूंबस मर जाना

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Thursday, November 22, 2007

LOVE STORY # 550: गृहस्थी का रेडियो, नौकरी का एसी
बहुत दिनों तक कोई नौकरी नहीं थी. उसने अपना रेज्यूमे कई जगह भेजा था, जिसमें उसकी अकादमिक उपाधियों का जिक्र था. साथ ही कम्प्यूटर में डबल स्पेस टाइप की गये हर कागज में उसका उद्देश्य भी था कि मौका मिला तो वह अपना सर्वश्रेष्ठ कर गुजरने को किस कदर बेताब है, किस कदर वह मरा जा रहा अपने भीतर की सकारात्मक ताकतों के उलाहने से चुनौतियों के सामने खड़ा होने और उनसे निपटने के लिए. नौकरी के लिए वह रोज भगवान से दुआ करता, मेल चैक करता, हफ्ते में दो दिन उपवास करता, और दूर कस्बे में रह रहे अपने मां बाप को ख़त लिखा करता कि संभावनाएं किस कदर उजली हैं. कुछ ही दिनों की बात है देखना, लिखता वह अपनी पत्नी को, जो अपने मायके में रह रही है, जब से वह बरकतुल्ला यूनिवर्सिटी भोपाल से नृतत्वशास्त्र यानी एंथ्रोपलॉजी में एम ए कर रहा था. बुंदेलखंड में अपने दिन काट रही रोज वह अपने उस पति के वायदे को अपनी याददाश्त से निकालकर झाड़ पोंछ कर वापस सजा देती थी. उसने कहा था कि वह उसके बिना नहीं रह सकता और नौकरी पाते ही उसे भोपाल शहर ले आएगा. कुछ ही दिनों की बात है, देखना तुम.
वह जब ये सब कर रहा था, तब वह दौर आ चुका था कि रोजगार ब्यूरो ने नौकरी दिलवाने का काम करना बंद कर दिया था. सिवा उनके जो रोजगार ब्यूरो के दफ्तर में ही काम करते थे. ये वह वक़्त था, जब नौकरियां उन सारी जगहों पर कम होने लगी थी, जहां रोजगार ब्यूरो की पंहुच हो सकती थी. सरकारी क्षेत्र, सार्वजनिक उपक्रम, नेहरू जी का समाजवादी अर्थव्यवस्था, ट्रेड यूनियन और खुद एम्पलॉयमेंट एक्सचेंज नौकरियों के मामले में अपनी आप्रासंगिकता के चरम पर थे. मुश्किल वक़्त था. पर देखिये किस्मत किसे कहते हैं. अजगर से भी ज्यादा आलसी, मरे हुए की मुट्ठी से भी खाली, और भयानक अकर्मक खामोश ठंडे एम्पलॉयमेंट एक्सचेंज ने उसे दरअसल एक चिट्ठी भेजी. जिसमें दरअसल और वाकई और सचमुच उसके लिए एक नौकरी थी.मरहूम नवाबों के शहर भोपाल में जहरीली गैस फैलाने के मुआवजे के बतौर अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड से मिले पैसे से बने भोपाल गैस रिलीफ हॉस्पिटल में वह एक तारीख से मौरच्यूरी का नाइट शिफ्ट इंचार्ज था. पिछले इंचार्ज को ड्यूटी पर नशे पर रहने और एक नर्स से बदतमीजी करने के आरोप में निकाल दिया गया था. तनख्वाह ज्यादा नहीं थी, पर उसके पास अब अपनी नौकरी थी. उसकी मुंहमांगी मुराद यही थी. और फिर ये सेमी गवर्नमेंट नौकरी थी. लगभग परमानेंट.तो उसके पास खुश होने की एक वजह थी. उसने अपने घर चिट्ठी लिखी नौकरी मिलने की खुशखबरी - ख़त को तार और थोड़े का बहुत समझाने वाली चिट्ठी. बहुत साफ से नहीं बताया कि काम क्या है. पत्नी को लिखा कि वह जल्द से जल्द पुराने भोपाल में एक कमरा- किचन- शेयर्ड टॉयलेट वाली गृहस्थी संभाले. उसे आने में एक हफ्ता लगा, पर स्टेशन पर वह मुस्कुराई उसे देख कर. उसकी आंखों ने उसे बताया कि वह कितना फख्र करती है उस पर. ओह कितनी मुद्दत बाद. आखिरकार.कई बार उसे दुख होता गैस त्रासदी के बारे में. सुबह जब वह ड्यूटी खत्म कर घर जा होता तो ओपीडी में बुरका पहनी औरतों और खांसते बूढ़ों को देख. जब एक छोटी सी कमजोर लड़की को उस शाम मोरच्यूरी में लाया गया तो अपने आंसू रोक न सका और कहीं और देखने लगा. फिर एक औरत पेट से थी, जिसे ऑपरेशन थियेटर के रास्ते स्ट्रेचर पर ही दम तोड़ चुकी थी. उसके कमरे में बैठने के लिए कुर्सी, लिखने और रजिस्टर रखने के लिए एक मेज, पानी का जग और गिलास रखने के लिए एक साइड स्टूल, एक ढाई सौ वोल्ट का बल्ब और सीलिंग फैन था, जो हवा कम करता था और शोर ज्यादा. उस कमरे की छत ऊंची थी, पर वह हवादार नहीं था. और उस कंक्रीट की इमारत में वहां काफी गर्मी हुआ करती थी.कई रातों में वह मोरच्यूरी के भीतर चला जाता था. वहां पर तीन टन के दो अमेरीकी एसी लगे थे, जो बने मलयेशिया में थे. एक वहां कि ठंड से उसे काफी राहत मिलती. अमेरिकी पैसों से बनी इमारत और एसी की बयार से हिंदुस्तानी गर्मी से निकलता पसीना गायब हो जाता. वह ताजातर हो जाता. बदबू और पसीने से आज़ाद. वह सोचता उसे किसी और नौकरी की जरूरत नहीं है. वह खुद को किस्मत वाला समझता. वह मुस्कुराता. बाहर गलियों में अभी भी गर्म हवाएं घूम रही थीं, जमीन अभी भी तप रही थी. और कंक्रीट के फर्श और छतों से अभी भी भभका निकल रहे हैं.अस्पताल के बाहर शहर पॉवर कट्स से जूझ रहा था. दोपहर शुष्क, गर्म, पसीने से भरी होती थी, जब वह घर पर होता था. उस छोटे से कमरे में साथ खाना खाने के बाद, वह इकलौती चारपाई पर अपनी पत्नी की बगल में लेट जाता. वे बारी बारी से प्लास्टिक का हाथ वाला पंखा करते. वे एयर कंडीशनर की बात करते. उसकी बयारनुमा ठंडक वाले अहसास के बारे में. वे मोरच्यूरी के बारे में बात नहीं करते. न ही उस लड़की या उस औरत के बारे में जो पेट से थी. वह उससे कहता किसी दिन उसे दिखाने ले जाएगा. उस पॉवर कट में बैटरी से चलने वाला सरकारी रेडियो दो दशक पहले के फिल्मी गाने बजाता.

गुरुवार, 29 नवंबर 2007

नो स्मोकिंग : फिर तलब, है तलब [No Smoking : Music Review]
[वैधानिक चेतावनी : नो स्मोकिंग का संगीत स्वास्थ्य के लिये हानिकारक साबित हो सकता है.. बार बार की रिवाईंडिंग आपकी उंगलियों को नुकसान पहुंचा सकती है.. और संगीत का हर कश आपको इस एल्बम का तलबगार बना सकता है ]बीड़ी की आग अभी तक बुझी नहीं थी, कि गुलज़ार साब विशाल के साथ सिगरेट लेकर हाज़िर हो गये हैं... नो स्मोकिंग का संगीत आ गया है.. हालांकि हर गीत सिगरेट विरोधी स्वर लिये हुए है मगर यकीन मानिये इसके संगीत के एक एक कश में बहुत नशा है.. एक बार सुनने के बाद फिर से सुनने कि तलब लगती है.. बहुत अल्हदा किस्म की फ़िल्म लग रही है नो-स्मोकिंग और संगीत ने भी इस धारणा को और मजबूत बना दिया है... एल्बम के सारे गीत फ़िल्म की नायिका (सिगरेट.. शायद खलनायिका भी कह सकते हैं) और नायक जौन के उसके मोहपाश में बंधे होने की दास्तां को बयां करते हैं...सिगरेट की खौफ़नाक़ खूबसूरती के मंज़र बहुत खूबी से इस एलबम के गीतों में उकेरे गये हैंगुलज़ार साब ने अपने गीतों मे सिगरेट पीने वालों की ज़िन्दगी के एक्स-रे, सर्जरी और पोस्ट-मार्टम कविताई अन्दाज़ में पेश किये हैं..एल्बम का पहला गीत अदनान सामी ने गाया है और क्या खूब गाया है.. सिगरेट की सुलगन और ज़िन्दगी की क़तरा कतरा पिघलन को, उलझन को डूब के गाया हैफिर तलब, है तलब...बेसबब, है तलबशाम होने लगी है, लाल होने लगी हैजब भी सिगरेट जलती है, मैं जलता हूंआग पे पाँव पड़ता है, कमबख़्त धुएं में चलता हूं"फिर किसी ने जलाई, एक दिया सलाईआसमां जल उठा है, शाम ने राख उड़ायी"नायक के अन्दर की धीमी धीमी सुलगन, और धीरे धीरे ही राख में तब्दीली को गुलज़ार अपने ही अन्द्दज़ में बहुत खूबी से कह जाते हैं"उपले जैसे जलता हूं, कम्बख्त धुएं में चलता हूं"और विजुअल कन्स्ट्रक्शन देखिये"लम्बे धागे धुएं के सांस सिलने लगे हैंप्यास उधड़ी हुई है, होठ छिलने लगे हैंशाम होने लगी है, लाल होने लगी है" (ज़िन्दगी की शाम, खून की लाली?)गीत सुनने के बाद ये अन्दाज़ा लगाना नामुमकिन हो जाता है कि गीत का सबसे मजबूत पक्ष अदनान की गायकी में है, विशाल की शानदार कम्पोजिशन में या गुलज़ार साब के शब्दों मे.. तीनों का मेल एल्बम को बेहतरीन शुरुआत देता है. गीत बाद मे सुनिधि की अवाज़ में भी है, और वो गीत भी बहुत खूबसूरत बन पड़ा है.. मगर अदनान के सामने थोड़ा फीका सा लगता है..अगला गीत "फूंक दे" भी दो बार है, रेखा भारद्वाज और सुखविन्दर सिंह के स्वरों में.. यकीन मानिये दोनो वर्शन दो अलग अलग गीतों सा मज़ा देते हैं.. रेखा का वर्शन रस्टिक फ्लेवर में है.. और गुलज़ार साब के बोल सिगरेट के ज़हर के अपने ही तरीके से बयां करते हैं"हयात (ज़िन्दगी) फूंक दे, हवास (रूह) फूंक देसांस से सिला हुआ लिबास (शरीर) फूंक दे.. ""पीले पीले से जंगल में बहता धुआंघूंट घूंट जल रहा हूं, पी रहा हूं पत्तियां" (तम्बाक़ू की)कश लगा एल्बम का अगला गीत है.. सुखविन्दर, दलेर मेहंदी और स्वयं विशाल भारद्वाज की आवाज़ में कव्वालीनुमा गीत है... तीनों गायकों का तालमेल अच्छा बन पड़ा है.. गीत अल्बम को मोनोटोनस होने से बचाता भी है, फिर भी एल्बम क सबसे कमजोर गीत है"ये जहान फ़ानी है...बुलबुला है, पानी हैबुलबुलों पे रुकना क्या, पानियों पे बहता जा"इसके बाद बारी आती है एल्बम के सबसे खूबसूरत लिखे गये गीत ’एश-ट्रे’ की.. विशाल की कम्पोसिशन गीत के मूड के मुताबिक है और और नये गायक देवा सेन गुप्ता इस मुश्किल से गीत को सफलता से निभा गये हैं..."बहुत से आधे बुझे हुए दिन पड़े हैं इसमेबहुत से आधे जले हुई रात गिर पड़ी हैंये एश-ट्रे भरती जा रही है"बहुत खूब!फिर तलब... है तलब...इस तलब के लिये बहुत बहुत शुक्रिया..विशाल को, गुलज़ार साब को, और अनुराग कश्यप को, जिन्होने बिकाऊ संगीत के बजाय ऐसा संगीत चुनने में हिम्मत और ईमानदारी दिखायी जो स्क्रिप्ट के अनुरूप है..और मैं फिर से री-वाईण्ड कर रहा हूं...
मन मछेरा हो गया
तुम हृदय के द्वार पर आएउजेरा हो गया
आँसुओं ने एक लिख डाली कथाथी छिपी जिसमें घरौंदे की व्यथाकिंतु तिनके बीन तुम लाएबसेरा हो
इस जगत ने झूठ ही हमको दियाहमने तेरी आँख से सच को पियाअब निशा का तम भले छाएसवेरा हो गया
तुम हृदय सागर तलक जाओ ज़रासीप के मोती उठा लाओ ज़रामन हमारा मीन बिन पाएमछेरा हो गया
चल रहा हर पाँव तपती रेत परक्यों न सुस्ता लें ज़रा-सा खेत पररास्ते को क्या कहा जाएलुटेरा हो गया